लेखाञ्जलि/१४—अमेरिका में कृषि-कार्य

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ११५ से – १२४ तक

 

१४—अमेरिकामें कृषि-कार्य।

संसार परिवर्तनशील है। यहां कोई भी चीज सदा एक ही सी दशामें नहीं रहती। समयानुसार सबमें परिवर्तन होता है। जिस देश या जिस समाजके लोग समयकी स्वाभाविक गतिपर ध्यान नहीं देते उस देश या उस समाजको अधःपतन अवश्य ही होता है।

भारतवर्ष कृषि-प्रधान देश है। यहाँकी भूमिमें जितनी उर्वराशक्ति है उतनी शक्ति बहुत ही कम देशोंकी भूमिमें होगी। कृषि-कार्यके योग्य जितनी भूमि यहाँ है उतनी शायद ही और किसी देशमें हो। फिर भी हमारे देशके किसानोंको भर-पेट भोजन नहीं मिलता। दूसरे देशोंके किसान सर्वथा सुखी और भारतके प्रायः सर्वथा ही दुखी हैं। अच्छा, इस अन्तरका कारण क्या? यह तो कही नहीं सकते कि यहाँके किसान परिश्रमी नहीं, क्योंकि उन्हें बारह-बारह घण्टे काम करते हम प्रत्यक्ष देखते हैं

भारतवर्षमें कृषकोंकी दुरवस्था और निधनताके कई कारण हैं। एक तो यहां किसानोंमें शिक्षाका अभाव है। दूसरे यहाँकी गवर्नमेंटने देशके कुछ अंशको छोड़कर अन्यत्र सभी कहीं भूमिको अपने अधिकारमें कर रक्खा है। वही उसकी मालिक बनी बैठी है। अतएव उसने भूमिके लगान और मालगुजारीके सम्बन्धमें जो कानून बनाये हैं वे बहुत ही कड़े हैं। फिर जहाँ-कहीं तअल्लुकेदारियां हैं वहां किसानोंके सुभीतेका कम, तअल्लुकेदारोंके सुभीतेका अधिक खयाल रखा गया है। यही सब कारण हैं जो किसानोंको पनपने नहीं देते।

जितने सुशिक्षित और सभ्य देश हैं वे वैज्ञानिक ढङ्गसे कृषि करते हैं। फल यह हुआ है कि वे मालामाल हो रहे हैं। पर मारतमें शिक्षाके अभाव अथवा कमी तथा निर्धनताके कारण इस प्रकारकी नवाविष्कृत खेती हो ही नहीं सकती। हाँ, जो लोग पढ़े-लिखे और साधन-सम्पन्न हैं वे यदि चाहें तो पश्चिमी देशोंके ढङ्गकी खेती करके बहुत लाभ उठा सकते हैं। परन्तु, खेद है, उनका भी झुकाव इस तरफ नहीं। इसे ईश्वरी कोप ही कहना चाहिये। जबतक देशकी यह दशा रहेगी—जबतक शिक्षित जन-समुदाय कृषि-कार्यकी ओर ध्यान न देगा—और जबतक अभिनव आविष्कारोंसे काम न लिया जायगा तबतक कृषिकारोंकी दरिद्रता दूर न होगी। देशको समृद्धिशाली करनेके लिए वैज्ञानिक प्रणालीसे कृषि करनेको बड़ी ही आवश्यकता है।

इस समय भारतकी जैसी अवस्था है, कोई ३०० वर्ष पहले संयुक्त-देश, अमेरिका की भी ठीक वैसी ही किम्बहुना उससे भी बुरी, दशा थी। वर्जिनिया, इस समय, उस देशका एक प्रधान और विशेष समृद्ध प्रान्त गिना जाता है। परन्तु १६०७ ईसवी में कप्तान जान स्मिथ नामक एक आदमीने वहांके कृषकको नितान्त हीनावस्थामें देखा था। उस समय वहाँ एक मामूली हलसे ज़मीन जोती जाती थी। ज़मीन खोदनेके लिए, फावड़े के बजाय एक प्रकारकी लकड़ीसे काम लिया जाता था। ज्वार ओखली और मूसलसे उसी तरह कूटी जाती थी जिस तरह हमारे यहाँ अबतक कूटी जाती है। कुल्हाड़ीसे काटकर पेड़ गिराना लोगों को मालूम ही न था। वे उसके नीचे आग जलाकर उसे गिराते थे। खेतीका सारा काम हाथसे होता था।

अमेरिका नौ-आबाद देश है। भिन्न-भिन्न देशों की फालतू आबादी वहाँ जा बसी है। योरपके निवासी वहां जैसे-जैसे जाते और बढ़ते गये वैस-ही-वैसे उन्हें खेतीमें उन्नति करनेकी सूझती गयी। अपने जन्म-देशमें जिस तरह खेती होती थी उसी तरह उन्होंने वहां भी कृषि कार्य करनेका निश्चय किया। अमेरिकामें भूमिकी कमी तो थी ही नहीं। एक-एक कृषकको सौ-सौ-दो-दो सौ बीघे भूमि आसानीसे मिल जाती थी। इतनी भूमिमें पुराने ढङ्गसे, हाथोंहीकी बदौलत, खेती करना सम्भव भी न था। अतएव उन्हें कलें-मैशीनें ईजाद करने की सूझी।

पहले-पहल वहाँवालोंने पन चक्की का आविष्कार किया। उससे एक दिनमें सैकड़ों मन आटा पिसने लगा। देखकर लोग हैरतमें आ गये। दूर दूरसे लोग आटा पिसाने आने लगे। चक्कीके मालिकको खब मुनाफ़ा होने लगा। कुछ ही दिनोंमें वह अमीर हो गया। उसे इस तरह कामयाब हुआ देख और लोगोंने भी उसका अनुकरण किया। धीरे-धीरे एञ्जिनोंसे, और कुछ समय बाद, बिजलीसे ये चक्कियाँ चलने लगीं।

इसके बाद योरपसे जाकर अमेरिकामें बस जानेवालोंने हवासे काम लेनेकी युक्ति निकाली। उन्होंने पानी खींचने और ऊपर चढ़ानेके लिए एक ऐसी कल निकाली, जो हवासे चलती थी। इस कलसे खेत सींचनेमें बहुत सुभीता हुआ। इस तरहकी कलें अमेरिका में कहीं-कहीं अब भी देखनेको मिलती हैं। अब तो वहां ऐसे-ऐसे पम्प ईजाद हो गये हैं जिनसे काम लेनेके लिए एञ्जिन लगे हुए हैं और जिनसे सैकड़ों बीघे ज़मीनमें बोई हुई फ़सलें बात-की-बातमें सींच दी जाती हैं। इन्हीं एञ्जिनोंकी सहायतासे चलायी गयी अन्य कलें भी अनेक काम करती हैं। उनसे कुट्टी काटी जाती है, लकड़ी चीरी जाती है, अनाज कूटा जाता है और आटा भी पीसा जाता है। बस अकेले एक एञ्जिनसे ये सब काम हो जाते हैं। यह तरक्की वर्तमान कालकी है।

१८०० ईसवीके लगभल कुछ लोग घोड़ों और कुत्तोंसे भी काम लेने लगे। गन्नेका रस निकालने तथा और भी कुछ काम करनेके लिए उन्होंने ऐसी कलें निकालीं जो घोड़ों और कुत्तोंसे चलायी जाती थीं। अमेरिकाके दक्षिणी भागमें रहनेवाले हबशी अबतक, कहीं-कहीं, ऐसी कलोंसे काम लेते देखे जाते हैं। १८०७ ईसवीमें संयुक्त-देश (अमेरिका) के निवासियोंने भाफ़की शक्तिका ज्ञान प्राप्त किया और उससे काम लेनेकी ठानी। राबर्ट फूल्टन नामके एक आदमीने एक ऐसी नाव ईजाद की जो भाफ़की सहायतासे चलने लगी। उसमें उसने एञ्जिन लगाया और न्यूयार्क नगरसे अलबनी तक उसीपर उसने हडसन नदी पार की। उसके इस कार्य्यने अमेरिकावालों की आंखें खोल-सी दी। बस फिर क्या था, भाफ़की शक्ति मालूम हो जाने पर लोग भाफ़से चलनेवाले एञ्जिनोंके पीछे पड़ गये। जगह-जगह एञ्जिन लग गये और नये-नये कल-कारख़ाने खुलने लगे। खेतीके कामोंके लिए भी यही एञ्जिन लगाये जाने लगे। खेत काटना, भूसा उड़ाना, कटी हुई फ़सलोंको मांडना–ये सभी काम एञ्जिनों की सहायतासे होने लगे। वहांवालोंने पहले पानीसे काम लिया, फिर हवासे, फिर घोड़ों और कुत्तोंसे और तदनन्तर भाफ़से। अब तो वे लोग बिजली देवीको भी अपने वशमें किये हुए हैं और छोटे-बड़े हज़ारों काम उसीकी सहायतासे करते हैं।

अमेरिकाके कुछ बड़े-बड़े किसानोंकी ज़मीनके पास पानी प्रवाही झरने हैं। ये कृषिकार अब इस फ़िक्रमें हैं कि उन झरनोंकी जल-धारासे बिजलीकी शक्ति उत्पन्न करके उसकी सहायतासे कलें चलावें और उनसे खेतोहीके नहीं, अपने घरेलू काम भी निकालें। उनके इस उद्योगमें किसी-किसीको सफलता भी हुई है। वे लोग अब झरनों की बिजलीसे कृषिके उपयोगी यन्त्रोंका सञ्चालन करने भी लगे हैं। यह काम बड़े फ़ायदेका है। इसमें एक ही दफ़े कील-कांटों और मैशीनोंमें जो ख़र्च होता है वह होता है। पीछेसे इस काममें बहुत ही कम ख़र्च करनेकी ज़रूरत रह जाती है।

यह सब होनेपर भी, १८३७ ईसवी तक, अमेरिकामें खेतीके औज़ारों वगैरहमें विशेष उन्नति न हुई थी। भारतमें इस समय जैसे हल काम आते हैं, कुछ-कुछ उसी तरहके वहाँ भी काम आते थे। उनसे ठीक काम न होता देख इलिनाइसके जान डियर नामक एक लुहारने लोहेका एक हल ईजाद किया। उस समय वहाँके हल वज़नी होते थे। उनसे वहाँकी कड़ी ज़मीन अच्छी तरह जुतती भी न थी—उनके फाल ज़मीनमें गहरे न धंसते थे। डियरके लोहेके हलने इन दोषोंको दूर कर दिया। पहले तो लोगोंने उसकी इस ईजादकी दिल्लगी उड़ाई; पर जब उसके हलसे पहलेकी अपेक्षा बहुत अधिक और बहुत अच्छा काम होने लगा, तब वे लोग आश्चर्य्य-चकित होकर उसकी प्रशंसा करने लगे। कई साल तक इन हलोंकी बहुत ही कम बिक्री हुई। परन्तु ज्यों-ज्यों उनकी उपयोगिता लोगोंके ध्यानमें आती गयी, त्यों-त्यों उनका प्रचार बढ़ता गया। १८३७ से १८३९ ईसवी तक जान डियरके बनाये बहुतही कम हल बिके। उसके बाद उनकी बिक्री बढ़ी और कोई १८ वर्षके भीतर ही डियरके कारख़ाने में, हर साल दस हज़ार तक हल बनकर बिकने लगे। अब तो डियरका कारख़ाना बहुत ही बड़े पैमानेमें काम कर रहा है। वह इलिनाइस रियासतके मोलिन नामक स्थानमें है। उसमें एक हल तैयार होनेमें सिर्फ ३० सेकंड लगते हैं। हर फ़सलमें यह कारख़ाना कमसे कम दस लाख फाल तैयार करता है। उसमें कोई डेढ़ हज़ार आदमी काम करते हैं। हर साल, इस कारख़ाने में १० लाख मन लोहा, ५ लाख मन कोयला, ११ लाख मन तेल और वार्निश, २५ लाख फुट लकड़ी और १२ लाख गैलन जलानेका तेल खर्च होता है।

जान डियरकी ईजादके बाद अमेरिकाके एञ्जिनियर और काश्तकार खेतीके यन्त्र-निर्म्माणकी ओर और भी अधिक दत्तचिन हुए। तरह-तरहकी कलें ईजाद होने लगीं। उनकी बदौलत खेतीकी पैदावार बराबर बढ़ती ही चली गयी। वहां लाखों बीघे ज़मीन गैर आबाद पड़ी हुई थी। परन्तु जानवरोंकी मदद से चलनेवाले हलोंकी बदौलत उनका आबाद होना असम्भव-सा था। अतएव बहुत-कुछ माथा-पञ्ची करनेके बाद एञ्जिनियरोंने भाफ़से चलनवाले बड़े-बड़े हल-समूहोंका आविष्कार किया। यह एक प्रकारकी कल है। आवश्यकता होनेपर इसमें एक ही साथ चौदह-चौदह हल जोड़ दिये जाते हैं। वे सब साथ ही कड़ीसे भी कड़ी जमीनको गहरी जोतने चले जाते हैं। जितना गहग जोतना दरकार हो उतना ही गहरा जोतनेका प्रबन्ध इन हलों में है। फ़ालोंको ज़रा नीचा-ऊँचा कर देनेहींसे यह काम आसानीसे हो जाता है। इन हलोंमें ऐसे पुर्जे़ लगे हुए हैं कि हल चाहे जितनी तेज़ी से चल रहे हों फ़ाल ऊँचे-नीचे किये जा सकते हैं। सामने पत्थर वग़ैरहके टुकड़े आजानेपर ये हल उनपर टक्कर न खाकर साफ़ आगे निकल जाते हैं। इस एक हलसे एक दिनमें ३६ एकड़ तक जमीन जोती जा सकती है इन हलोंमें ऊपर बैठनेकी जगह रहती है। जैसे रेलका एञ्जिन चलानेवाला उसपर आरामसे बैठा रहता है उसी तरह इन हलोंको चलानेवाला भी उन्हींपर बैठा रहता है। उसे उनके पीछे-पीछे दौड़ना नहीं पड़ता।

खेत जोत जानेके बाद उसको हमवार करने और ढेले तोड़नेके लिए अब वहाँ सरावन या पहटा फेरनेका भी बढ़िया प्रबन्ध हो गया है। पहले वहाँ लकड़ीके काँटेदार पहटे होते थे। उनसे ठीक-ठीक काम न होता था। अब वहांवालोंने लोहेका पहटा बना लिया है। उसमें दाँत या दाँतवे होते हैं। उसे घोड़े चलाते हैं। यदि एक तरफ़से घोड़ा जोता जाता है तो वे दाँतवे सीधे खड़े हो जाते हैं। यदि दूसरी तरफ़से जोता जाता है तो वे तिरछे हो जाते हैं। मतलब यह कि जैसी ज़मीन बनाने की ज़रूरत होती है वैसी ही उससे बना ली जाती है। अमेरिकामें एक और तरहका भी पहटा काममें लाया जाता है। उसमें दाँतवोंके बदले चक्र लगे रहते हैं। वे बहुत तेज़ होते हैं और बराबर घूमा करते हैं। उससे खेतकी मिट्टी खूब महीन और हमवार हो जाती है। उसे फेरनेवाला उसीपर सवार रहता है।

इसी तरहकी और भी अनेक कलें अमेरिकामें ईजाद हुई हैं और रोज़मर्रा काममें आती हैं। उनसे बहुत अधिक काम होता है और ख़र्च तथा मिहनतमें बहुत बचत भी होती है। उन सबके उल्लेखके लिए इस लघु लेखमें स्थान कहां?

फ़सल तैयार होनेपर वह कलोंहीसे काटी और कलोंहीसे बाँधी जाती है। १८३१ ईसवी तक वहाँ भी हँसुवेहीसे फ़सल काटी और हाथोंहीकी मददसे बाँधी जाती थी। सौ-सौ दो-दो सौ बीघोंमें बोये गये गेहूँ की फ़सल हँसुवेसे काटनेमें कितना समय लग सकता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं। इस दिक्कतको दूर करनेके लिए भी कई तरहकी कलें ईजाद हो गयी हैं। पहले उनमें कुछ त्रुटियाँ थीं। पर अब वे नहीं रह गयीं। अब तो सैकड़ों बीघे गेहूँ की फ़सल बहुत जल्द कलोंसे कट जाती है। १८५१ ईसवीमें कटी हुई फ़सलको तारोंसे बाँध डालनेकी मैशीन भी बन गयी। वही अब बाँधनेका काम करती है। उससे बाँधे गये गट्ठे खलिहानमें खोलकर सुखाये जाते हैं। सूख जानेपर वे मांड़नेवाली मशीनके सिपुर्द कर दिये जाते हैं। एक आदमी लाँकको कलमें डालता जाता है। कल उसकी बालोंको अलग और डंठलोंको अलग कर देती है। बालोंका दाना निकलकर ढेर हो जाता है। तब वह एक पंखेदार मैशीनसे साफ़ कर लिया जाता है। इस प्रकार स्वच्छ अनाज अलग हो जाता है और भूसा अलग। डंठलोंको तोड़कर भूसा बनानेकी मैशीनें अलग ही हैं। वे सैंकड़ों-हज़ारों मन भूसा बहुत आसानीसे तैयार कर देती हैं।

संयुक्त-देश (अमेरिका) में आलू बहुत पैदा होता है। उसे बोनेके लिए भी छोटी-बड़ी कई तरहकी मैशीनें काममें लायी जाती हैं। यहाँ तक कि घास काटनेकी भी मैशीनें वहां काम करती हैं। घासकी वहां बहुत अधिकता है। अकेले उसकी बिक्रीसे वहाँवालों को करोड़ों रुपये की आमदनी होती है। उसके गट्ठे बांधकर बाहर भेजे जाते हैं।

भारतके शिक्षित जनोंको देखना चाहिये कि कृषिका व्यवसाय कितना लाभदायक है। अनेक कारणोंसे, जिनमेंसे कुछका उल्लेख ऊपर हो चुका है, यहाँ अमेरिकाकी जैसी खेती नहीं हो सकती। तथापि जो लोग साधन-सम्पन्न हैं और जिनके पास ज़मीन है उन्हें दूसरोंकी गुलामी न करके, नये ढङ्गसे खेती करना चाहिये। जबतक पढ़े लिखे भारतवासी इस ओर ध्यान न देंगे या कृषक-मण्डलीमें कृषि-विषयक शिक्षाका प्रचार न होगा तबतक इस देशका दारिद्र भी दूर न होगा। कृषि और उद्योग-धन्धोंहीकी बदौलत देश समृद्ध होते हैं, इस बातको न भूलना चाहिये। इसमें सन्देह नहीं कि क़ीमती कलें खरीद करने के लिए रुपया दरकार होता है। वह यहाँके निर्धन कृषकों के पास नहीं। पर सधन और सामर्थ्यवान् जनोंके पास तो है। वही क्यों न इस कामको अपने ऊपर लेकर दूसरोंके लिए आदर्श बनें? अमेरिकामें भी सभी कृषक सब तरहकी मैशीनें नहीं रखते। वे सहयोगसे काम लेते हैं। किराये पर भी वे मेशीनें लाते हैं—उसी तरह जैसे यहाँ गन्ना पेरनेकी मैशीनें छोटे-छोटे कृषक भी किरायेपर लाते हैं। अपने देशमें पंजाबके परलोकवासी सर गङ्गारामके कामको देखिये उन्नत कृषिकी बदौलत ही उन्होंने लाखों रुपया पैदा किया ओर लाखों ख़ैरात कर गये।

[दिसम्बर १९२७]