रामनाम/७
रामनाम और राष्ट्रसेवा
सवाल—क्या किसी पुरुष या स्त्रीको राष्ट्रीय सेवामे भाग लिये बिना रामनामके अुच्चारण मात्रसे आत्मदर्शन प्राप्त हो सकता है? मैने यह प्रश्न अिसलिअे पूछा है कि मेरी कुछ बहने कहा करती है कि हमको गृहस्थीके कामकाज करने तथा यदा-कदा दीन-दु:खियोके प्रति दयाभाव दिखानेके अतिरिक्त और किसी कामकी जरूरत नही है।
जवाब—अिस प्रश्नने केवल स्त्रियोको ही नहीं, बल्कि बहुतेरे पुरुषोको भी अुलझनमे डाल रखा है और मुझे भी अिसने धर्म-सकटमे डाला है। मुझे यह बात मालूम है कि कुछ लोग अिस सिद्धान्तके माननेवाले है कि काम करने की कतअी जरूरत नही और परिश्रम मात्र व्यर्थ है। मैं अिस खयालको बहुत अच्छा तो नहीं कह सकता। अलबत्ता, अगर मुझे अुसे स्वीकार करना ही हो तो, मै अुसके अपने ही अर्थ लगाकर अुसे स्वीकार कर सकता हू। मेरी नम्र सम्मति यह है कि मनुष्यके विकासके लिअे परिश्रम करना अनिवार्य है। फलका विचार किये बिना परिश्रम करना जरूरी है। रामनाम या अैसा ही कोअी पवित्र नाम जरूरी है—महज लेनेके लिअे ही नहीं, बल्कि आत्मशुद्धिके लिअे, प्रयत्नोको सहारा पहुचानेके लिअे और अीश्वरसे सीधे-सीधे रहनुमाअी पानेके लिअे। अिसलिअे रामनामका अुच्चारण कभी परिश्रमके बदले काम नहीं दे सकता। वह तो परिश्रमको अधिक बलवान बनाने और अुसे अुचित मार्ग पर ले चलनेके लिअे है। यदि परिश्रम मात्र व्यर्थ है, तब फिर घर-गृहस्थीकी चिन्ता क्यो? और दीन-दु:खियोको यदा-कदा सहायता किसलिअे? अिसी प्रयत्नमे राष्ट्रसेवाका अकुर भी मौजूद है। मेरे लिअे तो राष्ट्रसेवाका अर्थ मानव-जातिकी सेवा है। यहा तक कि कुटुम्बकी निर्लिप्त भावसे की गअी सेवा भी मानवजातिकी सेवा है। अिस प्रकारकी कौटुम्बिक सेवा अवश्य ही राष्ट्रसेवाकी ओर ले जाती है। रामनामसे मनुष्यमें अनासक्ति और समता आती है रामनाम आपत्तिकालमे अुसे कभी धर्मच्युत नही होने देता। गरीबसे गरीब लोगोकी सेवा किये बिना या अुनके हितमे अपना हित माने बिना मोक्ष पाना मै असम्भव मानता हू।
हिन्दी नवजीवन, २१-१०-१९२६
सेवाकार्य या माला-जप?
स॰—सेवाकार्यके कठिन अवसरो पर भगवद्भक्तिके नित्य नियम नही निभ पाते, तो क्या अिसमे कोअी हर्ज है? दोनोमे से किसको प्रधानता दी जाय, सेवाकार्यको अथवा माला-जपको?
ज॰—कठिन सेवाकार्य हो या अुससे भी कठिन अवसर हो, तो भी भगवद्भक्ति यानी रामनाम बन्द हो ही नहीं सकता। अुसका बाह्य रूप प्रसगके मुताबिक बदलता रहेगा। माला छूटनेसे रामनाम, जो हृदयमे अकित हो चुका है, थोडे ही छूट सकता है?
हरिजनसेवक, १७-२-१९४६
भगवानकी मदद मांगो
मैं सारे हिन्दुस्तानके विद्यार्थियोके साथ होनेवाले अपने पत्रव्यवहारसे जानता हू कि ढेरो पुस्तको द्वारा पाये हुअे ज्ञानसे अपने दिमागोको भर कर वे कैसे पगु बन गये है। कुछ तो अपने दिमागका सतुलन खो बैठे है, कुछ पागल-से हो गये है, तो कुछ अनीतिकी राह पर चल पड़े है—जिससे वे अपने-आपको रोक नही सकते। अुनकी यह बात सुनकर मेरा हृदय सहानभूति और दयासे भर जाता है कि अधिकसे अधिक प्रयत्न करके भी वे अपने जीवनको बदल नही सकते। वे दुखी होकर मुझसे पूछते है "हमे बताअिये कि शैतानसे हम कैसे पिड छुडाये? जिस अनीति और अपवित्रताने हमे धर दबोचा है, अुससे हम अपने-आपको कैसे छुडाये?" जब मै अुन्हे रामनाम जपने और भगवानके सामने झुक कर अुसकी सहायता मागनेकी बात कहता हू, तो वे मेरे पास आकर कहते है "हम नही