रामनाम
मोहनदास करमचंद गाँधी

अहमदाबाद - १४: नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, पृष्ठ ७७ से – ७९ तक

 

परिशिष्ट

सच्चा डॉक्टर राम ही है

नोआखाली में आमकी नाम का अेक गाँव है। वहाँ बापूजी के लिअे बकरी का दूध कहीं न मिल सका। सब तरफ तलाश करते-करते जब मैं थक गअी, तब आखिर मैंने बापू को यह बात बताअी। बापूजी कहने लगे "तो अुसमें क्या हुआ? नारियल का दूध बकरी के दूध की जगह अच्छी तरह काम दे सकता है। और बकरी के घी के बजाय हम नारियल का ताजा तेल निकाल कर खायेगे।"

अिसके बाद नारियल का दूध और तेल निकालने का तरीका बापू ने मुझे बताया। मैंने निकाल कर अुन्हें दिया। बापूजी बकरी का दूध हमेशा आठ औंस लेते थे, अुसी तरह नारियल का दूध भी आठ औंस लिया। लेकिन हजम करने में बहुत भारी पड़ा और अुससे अुन्हें दस्त होने लगे। अिससे शाम तक बापू को अितनी कमजोरी आ गअी कि बाहर से झोपड़ी में आते-आते अुन्हें चक्कर आ गये।

जब-जब बापू को चक्कर आने वाले होते, तब-तब अुनके चिह्न पहले ही दिखाई देने लगते थे। उन्हें बहुत ज्यादा जभाअियाँ आतीं, पसीना आता, और कभी-कभी वे आँखें भी फेर लेते थे। इस तरह उनके जभाअियाँ लेने से चक्कर आने की सूचना तो मुझे पहले ही मिल चुकी थी। मगर मैं सोच रही थी कि अब बिछौना चार ही फुट तो रहा, वहाँ तक तो बापूजी पहुँच ही जायेंगे। लेकिन मेरा अन्दाज गलत निकला। और मेरे सहारे चलते-चलते ही बापूजी लड़खड़ाने लगे। मैंने सावधानी से उनका सिर संभाल रखा और निर्मल बाबू को जोर से पुकारा। वे आये और हम दोनों ने मिलकर उन्हें बिछौने पर सुला दिया। फिर मैंने सोचा––'कहीं बापू ज्यादा बीमार हो गये, तो लोग मुझे मूर्ख कहेंगे। पास के देहात में ही सुशीलाबहन हैं। अुन्हें न बुलवा लूँ?' मैंने चिठ्ठी लिखी और भिजवाने के लिअे निर्मलबाबू के हाथ में दी ही थी कि अितने में बापू को होश आया और मुझे पुकारा "मनुडी!" (बापूजी जब लाडसे बुलाते थे, तो मुझे मनुडी कहते थे।) मैं पास गअी तो कहने लगे––"तुमने निर्मलबाबूको आवाज लगाकर बुलाया, यह मुझे बिल्कुल नहीं रुचा। तुम अभी बच्ची हो, अिसलिअे मैं तुम्हें माफ तो कर सकता हूँ। परन्तु तुमसे मेरी अुम्मीद तो यही है कि तुम और कुछ न करके सिर्फ सच्चे दिल से रामनाम लेती रहो। मैं अपने मन में तो रामनाम ले ही रहा था। पर तुम भी निर्मलबाबूको बुलाने के बजाय रामनाम शुरू कर देती, तो मुझे बहुत अच्छा लगता। अब देखो यह बात सुशीला से न कहना, और न उसे चिट्ठी लिखकर बुलाना। क्योंकि मेरा सच्चा डॉक्टर तो राम ही है। जहाँ तक अुसे मुझसे काम लेना होगा, वहाँ तक मुझे जिलायेगा, और नहीं तो अुठा लेगा।"

'सुशीला को न बुलाना' यह सुनते ही मैं काँप उठी और मैंने तुरंत निर्मलबाबूके हाथ से चिट्ठी छीन ली। चिट्‌ठी फट गयी। बापू ने पूछा––"क्यों, तुमने चिट्ठी लिख भी डाली थी न?" मैंने लाचारी से मंजूर किया। तब कहने लगे––"आज तुम्हें और मुझे अीश्वर ने बचा लिया। यह चिट्ठी पढ़कर सुशीला अपना काम छोड़कर मेरे पास दौड़ी आती, वह मुझे बिल्कुल पसन्द न आता। मुझे तुमसे और अपने आपसे चिढ़ होती। आज मेरी कसौटी हुअी। अगर रामनाम का मन्त्र मेरे दिल में पूरा-पूरा रम जाएगा, तो मैं कभी बीमार होकर नहीं मरूँगा। यह नियम सिर्फ मेरे लिअे ही नहीं, सबके लिअे है। हर-एक आदमी को अपनी भूल का नतीजा भोगना ही पड़ता है। मुझे जो दुःख भोगना पड़ा, वह मेरी किसी भूल का ही परिणाम होगा। फिर भी आखिरी दम तक रामनाम का ही स्मरण होना चाहिये। वह भी तोते की तरह नहीं, बल्कि सच्चे दिल से लिया जाना चाहिये। रामायणमें एक कथा है कि हनुमानजी को जब सीताजी ने मोती की माला दी, तो अुन्होंने उसे तोड़ डाला, क्योंकि उन्हें देखना था कि उसमें राम का नाम है या नहीं। यह बात सच है या नहीं, उसकी फिकर हम क्यों करें? हमे तो इतना ही सीखना है कि हनुमानजी जैसा पहाड़ी शरीर हम अपना न भी बना सके, फिर भी अुनके जैसी आत्मा तो जरूर बना सकते हैं। इस अुदाहरण को यदि आदमी चाहे तो सिद्ध कर सकता है। हो सकता है कि वह न भी सिद्ध कर पाये। लेकिन यदि सिद्ध करने की कोशिश ही करे, तो भी काफी है। गीता माता ने कहा ही है कि मनुष्यको कोशिश करनी चाहिये और फल अीश्वर के हाथमें छोड़ देना चाहिये। अिसलिअे तुम्हें, मुझे और सबको कोशिश तो करनी ही चाहिये। अब तुम समझी न कि मेरी, तुम्हारी या किसीकी बीमारीके विषयमें मेरी क्या धारणा है?"

अुसी दिन एक बीमार बहनको पत्र लिखते हुअे भी बापूने यही बात लिखी–– "संसारमें अगर कोअी अचूक दवाअी हो तो वह रामनाम है। अिस नामके रटनेवालोंको अिसका अधिकार प्राप्त करने के लिए जिन-जिन नियमोंका पालन करना चाहिये, अुन सबका वे पालन करें। मगर यह रामबाण अिलाज करनेकी हम सबमें योग्यता कहां है?"

(मेरी रोज की नोआखालीकी डायरीमें से)

अूपर की घटना ३० जनवरी, १९४७ के दिन घटी थी। बापूकी मृत्युसे ठीक अेक साल पहले।

रामनाम परकी उनकी यह श्रद्धा आखिरी क्षण तक अचल रही। १९४७ की ३०वीं जनवरी को यह मधुर घटना घटी; और १९४८ की ३०वीं जनवरी को बापू ने मुझसे कहा कि 'आखिरी दम तक हमें रामनाम रटते रहना चाहिए।' अिस तरह आखिरी वक्त भी दो बार बापू के मुंहसे 'रा . . . म! रा . . . म!' सुनना मेरे ही भाग्य में बदा होगा, अिसकी मुझे क्या कल्पना थी? अीश्वर की गति कैसी गहन है!

('बापू–– मेरी मां' से)