रामनाम
मोहनदास करमचंद गाँधी

अहमदाबाद - १४: नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, पृष्ठ ५९ से – ६० तक

 

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नाम-साधनाकी निशानियां

रामनाम जिसके हृदयसे निकलता है, अुसकी पहचान क्या है? अगर हम अितना न समझ ले, तो रामनामकी फजीहत हो सकती है। वैसे भी होती तो है ही। माला पहनकर और तिलक लगाकर रामनाम बडबडाने-वाले तो बहुत मिलते है। कही मै अुनकी सख्याको बढा तो नही रहा? यह डर अैसा-वैसा नही है। आजकलके मिथ्याचारमे क्या करना चाहिये? क्या चुप रहना ही ठीक नही? हो सकता है यही ठीक हो। लेकिन बनावटी चुपसे कोई फायदा नहीं। जीते-जागते मौनके लिए तो बडी भारी साधनाकी जरूरत है। अुसके अभावमे हृदयगत रामनामकी पहचान क्या? अिस पर हम गौर करे।

अेक वाक्यमे कहा जाअे तो रामके भक्त और गीताके स्थितप्रज्ञमे कोअी भेद नही। ज्यादा गहरे अुतरे तो हम देखेंगे कि रामभक्त पच महाभूतोका सेवक होगा। वह कुदरतके कानून पर चलेगा, अिसलिअे अुसे किसी तरहकी बीमारी होगी ही नहीं। होगी भी तो वह अुसे पच महाभूतोकी मददसे अच्छी कर लेगा। किसी भी उपायसे भौतिक दुख दूर कर लेना शरीरी––आत्मा––का काम नही, शरीरका काम भले हो। अिसलिअे जो शरीरको ही आत्मा मानते है, जिनकी दृष्टिमे शरीरसे अलग शरीरधारी आत्मा जैसा कोई तत्त्व नही, वे तो शरीरको टिकाये रखनेके लिए सारी दुनियामे भटकेगे। लका भी जायगे। अिससे अुलटे, जो यह मानता है कि आत्मा देहमे रहते हुअे भी देहसे अलग है, हमेशा कायम रहनेवाला तत्त्व है, अनित्य शरीरमें बसता है, शरीरकी संभाल तो रखता है, पर शरीरके जानेसे घबराता नही, दुखी नहीं होता और सहज ही उसे छोड देता है, वह देहधारी डॉक्टर-वैद्योके पीछे नही भटकता। वह खुद ही अपना डॉक्टर बन जाता है। सब काम करते हो भी वह आत्माका ही खयाल रखता है। वह मूर्छामे से जागे हुअे मनुष्यकी तरह बरताव करता है।

अैसा मनुष्य हर सासके साथ रामनाम जपता रहता है। वह सोता है तो भी अुसका राम जागता है। खाते-पीते, कुछ भी काम करते हुए राम तो अुसके साथ ही रहेगा। अिस साथीका खो जाना ही मनुष्यकी सच्ची मृत्यु है। अिस रामको अपने पास रखनेके लिअे या अपने-आपको रामके पास रखनेके लिअे वह पच महाभूतोकी मदद लेकर सन्तोष मानेगा। यानी वह मिट्टी, हवा, पानी, सूरजकी रोशनी और आकाशका सहज, साफ और व्यवस्थित तरीकेसे अिस्तेमाल कर के जो पा सकेगा अुसमे सन्तोष मानेगा। यह उपयोग रामनामका पूरक नही, पर रामनामकी साधनाकी निशानी है। रामनामको इन मददगारो की ज़रूरत नहीं। लेकिन इसके बदले जो अेकके बाद दूसरे वैद्य-हकीमोके पीछे दौड़े और रामनामका दावा करे, अुसकी बात कुछ जचती नहीं।

अेक ज्ञानीने तो मेरी बात पढ़कर यह लिखा है कि रामनाम अैसा कीमिया है, जो शरीरको बदल डालता है। वीर्यको अिकट्ठा करना दबा कर रखे हुई धनके समान है। उसमें से अमोघ शक्ति पैदा करनेवाला तो रामनाम ही है। खाली सग्रह करनेसे तो घबराहट होती है। किसी भी समय उसका पतन हो सकता है। लेकिन जब रामनामके स्पर्शसे वह वीर्य गतिमान होता है, अूर्घ्वगामी (ऊपर जानेवाला) बनता है, तब उसका पतन नामुमकिन हो जाता है।

शरीरके पोषणके लिए शुद्ध खून ज़रूरी है। आत्माके पोषणके लिए शुद्ध वीर्यशक्तिकी ज़रूरत है। इसे दिव्य शक्ति कह सकते है। यह शक्ति सारी इन्द्रियोकी शिथिलताको मिटा सकती है। इसीलिए कहा है कि रामनाम हृदयमें बैठ जाय, तो नयी जिन्दगी शुरू होती है। यह कानून जवान, बूढ़े, मर्द, औरत सबको लागू होता है।

पश्चिम में भी यह खयाल पाया जाता है। किश्चियन-सायन्स नामका सम्प्रदाय बिलकुल यही नहीं, तो करीब-करीब इसी तरहकी बात कहता है। लेकिन मैं मानता हूँ कि हिन्दुस्तानको अैसे सहारेकी ज़रूरत नहीं, क्योंकि हिन्दुस्तानमें तो यह दिव्य विद्या पुराने जमानेसे चली आ रही है।

हरिजनसेवक, २९-६-१९४७