रामनाम/३८
मुक्तिका अर्थ यही है कि आदमी हर तरहसे अच्छा रहे। फिर आप अच्छे क्यों न रहे? अगर अच्छे रहेंगे, तो दूसरोको अच्छा रहनेका रास्ता दिखा सकेंगे, और अिससे भी बढकर अच्छे होनेके कारण आप दूसरोंकी सेवा कर सकेंगे। लेकिन अगर आप अच्छे होनेके लिअे पेनिसिलिन लेते है, हालाकि आप जानते है कि दूसरोंको वह नही मिल सकती, तो जरूर आप सरासर खुदगरज बनते है।
मुझे पत्र लिखनेवाले अिन दोस्तकी दलीलमें जो गड़बडी है वह साफ है।
हा, यह ज़रूर है कि कुनैनकी गोली या गोलिया खा लेना रामनामके अुपयोगके ज्ञानको पानेसे ज्यादा आसान है। कुनैनकी गोलिया खरीदनेकी कीमतसे अिसमें कही ज्यादा मेहनत पड़ती है। लेकिन यह मेहनत अुन करोडों के लिअे अुठानी चाहिए, जिनके नाम पर और जिनके लिए लेखक रामनामको अपने हृदय से बाहर रखा चाहते है।
हरिजनसेवक, १-९-१९४६
३५
बेचैन बना देनेवाली बात
जब कुछ महीनोकी गैरहाजिरीके बाद गाधीजी सेवाग्राम-आश्रममे लौटे, तो देखा कि आश्रमके एक सेवक की दिमागी हालत खराब हो गअी है। जब वे पहली बार आश्रम मे आये थे, तब भी अुनकी हालत ऐसीही थी। यह पागलपनका दूसरा हमला था। उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि उन्हे संभालना मुश्किल हो गया, इसलिए उनके बारे मे फौरन ही कुछ फैसला कर लेने की ज़रूरत पैदा हो गई। इसलिए वधकेि सरकारी अस्पताल के बडे डॉक्टर की यानी सिविल सर्जन की सलाह पूछी गई। उन्होने कहा कि वे वर्धाके सरकारी सिविल अस्पताल में तो बीमार को रख नही सकेंगे, लेकिन अगर उन्हें जेल के अस्पताल में रखा जाय, तो वे उनकी सार-संभाल कर सकेंगे और थोडा-बहुत इलाज भी करेंगे। इसलिए बीमार की और आश्रम की भलाई के खयाल से उनको जेल भेजना पडा। गांधीजी के लिए यह चीज़ बहुत ही दुखदायी हो गअी। अिसने अुन्हे बेचैन बना दिया। लेकिन दूसरा कोअी रास्ता भी न था। अुन्होनें आश्रमवालोंके सामने अपनी परेशानीका ज़िक्र किया। वे बोले––"ये भाअी अेक अच्छे सेवक है। पिछले साल तन्दुरुस्त होनेके बाद वे आश्रमके बगीचेका काम देखते थे और दवा खाने का हिसाब रखते थे। वे लगन के साथ अपना काम करते और अुसीमें मगन रहते थे। फिर अुन्हे मलेरिया हो गया और अुसके लिअे अुनको कुनैनका इंजेक्शन दिया गया, क्योंकि खाने या पीनेके बजाय सूईके ज़रिये कुनैन लेने से वह सीधी खूनमें मिल जाती है और जल्दी असर करती है। अिन भाईका यह खयाल हो गया है कि अिजेक्शन उनके दिमाग में चढ़ गया है, और उसीका दिमाग पर इतना बुरा असर हुआ है। आज सुबह जब मैं अपने कमरेमें बैठ कर काम कर रहा था, तो मैंने देखा कि वे बाहर खड़े चिल्ला रहे है और हवामें अिधर-अुधर हाथ झुलाते हुए घूम रहे हैं। मैं बाहर निकलकर अुनके साथ घूमने लगा। अिससे वे शान्त हुए। लेकिन जैसे ही मैं अुनसे अलग होकर अपनी जगह पर लौटा, वे फिर अपने दिमाग का तौल खो बैठे और किसीके बसके न रहे। जब वे बिफरते है तो किसीकी बात नही सुनते। इसीलिए उनको जेल भेज देना पड़ा।
"कुदरती तौर पर मुझे अिस खयालसे तकलीफ होती है कि हमें अपने ही अेक सेवक को जेलमें भेजना पड़ा है। अिस पर कोअी मुझसे पूछ सकता है––'आप दावा करते है कि रामनाम सब रोगोंका रामबाण अिलाज है, तो फिर आपका वह रामनाम कहा गया?' सच है कि अिस मामले में मैं नाकाम रहा हू, फिर भी मै कहता हू कि रामनाममें मेरी श्रद्धा ज्यो की त्यो बनी हुई है। रामनाम कभी नाकाम नही हो सकता। नाकामीका मतलब तो यही है कि हममे कही कोअी खामी है। इस नाकामी की वजह को हमें अपने अन्दर ही ढूँढना चाहिये।"
हरिजनसेवक, १-९-१९४६