अहमदाबाद - १४: नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, पृष्ठ ५०

 
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कुदरती अिलाज और आधुनिक अिलाज

मेरा कुदरती अिलाज तो सिर्फ गाववालोके और गावोके लिअे ही है। अिसलिअे अुसमे खुर्दबीन, अेक्सरे वगैराकी कोअी जगह नही। और न कुदरती अिलाजमे कुनैन, अेमिटिन, पेनिसिलिन-जैसी दवाअियोकी ही गुजाइश है। असमे अपनी सफाअी, घरकी सफाअी, गावकी सफाअी और तन्दुरुस्तीकी हिफाजतका पहला स्थान है। और इतना करना काफी है। असकी तहमे खयाल यह है कि अगर हर आदमी इस कलामे निष्णात हो सके, तो कोअी बीमारी ही न हो। और, बीमारी आ जाय तो उसे मिटानेके लिए कुदरतके सभी कानूनो पर अमल करनेके साथ साथ रामनाम ही असल अिलाज है। यह अिलाज सार्वजनिक या आम नही हो सकता। जब तक खुद अिलाज करनेवालेमें रामनामकी सिद्धि न आ जाय, तब तक रामनाम-रूपी अिलाजको एकदम आम नही बनाया जा सकता। लेकिन पचमहाभूतोमे से यानी पृथ्वी, पानी, आकाश, तेज और हवामे से जितनी शक्ति ली जा सके, अुतनी लेकर रोग मिटानेकी यह एक कोशिश है, और मेरे खयालमे कुदरती अिलाज यही खतम हो जाता है। इसलिए आजकल उरुळीकाचनमे जो प्रयोग चल रहा है, वह गाववालोको तन्दुरुस्तीकी हिफाजत करनेकी कला सिखाने और बीमारोकी बीमारीको पचमहाभूतोकी मददसे मिटानेका प्रयोग है। जरूरत मालूम होने पर उरुळीमें मिलनेवाली जडी-बूटियोका अिस्तेमाल किया जा सकता है, और पथ्य-परहेज तो कुदरती अिलाजका जरूरी हिस्सा है ही।

हरिजनसेवक, ११-८-१९४६