रघुवंश/९—दशरथ का राज्यशासन, वसन्तोत्सव और आखेट
नवाँ सर्ग।
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दशरथ का राज्यशासन, वसन्तोत्सव और आखेट। ।
दशरथ बड़ा ही प्रतापी राजा हुआ। रथ पर सवार होकर युद्ध करने वाले पराक्रमी पुरुषों में से कोई भी उसकी बराबरी न कर सका। योग-साधन द्वारा उसने अपनी इन्द्रियों तक को जीत लिया । अतएव राजाओं में ही उसने श्रेष्ठता न प्राप्त की,योगियों में भी उसने सर्वोच्च आसन पाया। पिता की मृत्यु के अनन्तर उत्तर-कोसल का राज्य पाकर, योग्यतापूर्वक वह उसका शासन करने लगा। क्रौञ्चनामक पर्वत के तोड़ने वाले कुमार कार्तिकेय के समान तेजस्वी दशरथ ने, पिता से राज्य पाकर, अपनी राजधानी ही का नहीं, किन्तु सारे प्रजामण्डल का पालन इतनी अच्छी तरह किया कि सब कहीं पहले की भी अपेक्षा अधिक सुख-समृद्धि विराजने लगी। विधिपूर्वक प्रजापालन करने से उसकी प्रजा उसमें अत्यन्त अनुरक्त हो गई । वह सब का प्यारा हो गया। विद्वानों की सम्मति है कि त्रिलोक में दो ही पुरुष ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपना अपना काम करने वालों के श्रम को दूर करने के लिए समय पर पानी और धन-मान आदि की वर्षा की है। एक तो बल-नामक दैत्य का संहार करने वाला इन्द्र, दूसरा मनु का वंशधर राजा दशरथ । पहले ने तो यथासमय जल बरसा कर सुकर्म करने वालों का श्रम सफल किया और दूसरे ने यथासमय उपहार और पुरस्कार आदि देकर। मतलब यह कि दशरथ ने अच्छा काम करने वालों का सदा ही आदर किया और खिलतें तथा जागीरें आदि देकर उन्हें माला-माल कर दिया।
अज-नन्दन दशरथ बड़ा ही शान्तचित्त राजा था । तेजस्वी भी वह
ऐसा वैसा न था; तेजस्विता में वह देवताओं की बराबरी का था। उसके शान्तिपूर्ण राज्य में पेड़-पौधे फलों और फूलों से लद गये। पृथ्वी पहले से भी अधिक अन्न उत्पन्न करने लगी। देश में रोग का कहीं चिह्न तक न रह गया । वैरियों से भयभीत होने का तो नाम ही न लीजिए । दसों दिशाओं के जीतने वाले राजा रघु, और, उसके अनन्तर अज को पाकर जिस तरह पृथ्वी कृतार्थ हुई थी-जिस तरह वह शोभा और समृद्धि से सम्पन्न हो गई थी-उसी तरह वह दशरथ जैसे परम प्रतापी स्वामी को पाकर भी शोभाशालिनी और समृद्धिमती हुई । दशरथ किसी भी बात में अपने पिता और पितामह से कम न था। अतएव उसके समय में पृथ्वी पर सुख- समृद्धि और शोभा-सौन्दर्य आदि की कमी हो कैसे सकती थी ? सच तो यह है कि किसी किसी बात में राजा दशरथ अपने पूर्वजों से भी आगे बढ़ गया। सब के साथ एक सा न्याय करने में उसने धर्मराज का, दानपात्रों पर काञ्चन की वृष्टि करने में कुवेर का, दुराचारियों को दण्ड देने में वरुण का, और तेजस्विता तथा प्रताप मैं सूर्य का अनुकरण किया।
राजा दशरथ दिन-रात इसी प्रयत्न में रत रहने लगा कि किस प्रकार उसके राज्य का अभ्युदय हो और किस प्रकार उसका वैभव बढ़े। इस कारण और विषयों की तरफ़ उसका ध्यान ही न गया। न उसने कभी जुआ खेला; न वह अपनी नवयौवना रानी पर ही अधिक आसक्त हुआ; न उसने शिकार ही से विशेष प्रीति रक्खी; और न वह उस मदिरा ही के वश हुआ जिसके भीतर चन्द्रमा का झिलमिलाता हुआ प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था और जिसे वह गहने की तरह धारण किये हुए थी। राजा लोग विशेष करके इन्हीं व्यसनों में फँस जाते हैं । परन्तु इनमें से एक भी व्यसनहदशरथ के चित्त को अपनी तरफ़ न खोंच सका। इन्द्र, एक प्रकार से, यद्यपि दशरथ का भी प्रभु था-इन्द्र का स्वामित्व यद्यपि दशरथ पर भी था-तथापि उससे भी दशरथ ने कभी दीन वचन नहीं कहा । हँसी-दिल्लगी में भी वह कभी झूठ नहीं बोला । और, अपने शत्रुओं के विषय में भी उसने अपने मुँह से कभी कठोर वचन नहीं निकाला । बात यह थी कि उसे बहुत ही कम रोष आता था; अथवा यह कहना चाहिए कि उसे कभी रोष आता ही न था।
दशरथ के अधीन जितने माण्डलिक राजा थे उनको उससे वृद्धि और हास-हानि और लाभ-दोनों की प्राप्ति हुई। जिस राजाने उस की आज्ञा का उल्लंघन न किया उसे तो अपना मित्र बना कर उसके वैभव को उसने खूब बढ़ा दिया । परन्तु जिसने उसका सामना किया उसके राज-पाट को,वज्रहृदय होकर, उसने नष्ट कर डाला। धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर दशरथ ने, समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी को, केवल एक रथ से, जीत लिया । रथ पर सवार होकर उसने अकेले ही दिग्विजय कर डाला । सेना से सहायता लेने की उसे आवश्यकता ही न हुई। हाथियों और वेगगामी घोड़ों वाली उसकी सेना ने उसका केवल इतना ही काम किया कि उसकी जीत की घोषणा उसने सब कहीं कर दी। सेना-समूह के कारण दशरथ के विजय की खबर लोगों को जल्दी हो गई। बस, और कुछ नहीं। दशरथ का रथ बड़ा ही अद्भुत था । उसकी बनावट ऐसी थी कि उसके भीतर बैठने वाले को सामने भी खड़े हुए शत्रु न देख सकते थे । हाथ में धनुष लेकर और इसी रथ पर सवार होकर, कुवेर के समान सम्पत्तिशाली दशरथ ने समुद्र पर्यन्त फैली हुई पृथ्वी सहज ही जीत ली। विजय करते करते, समुद्र तट पर पहुँचने पर, बादलों की तरह घोर गर्जना करने वालेहसमुद्र ही उसकी जीत के नगाड़े बन गये । दशरथ को वहाँ विजय-दुन्दुभी बजाने की आवश्यकता ही न हुई। समुद्र की मेघ-गम्भीर ध्वनि से ही दुन्दुभी का काम निकल गया।इन्द्र ने पहाड़ों के पक्ष बल का नाश अपने हज़ार धारवाले वज्र से किया था; परन्तु नये कमल के समान मुखवाले दशरथ ने शत्रुओं के पक्ष, बल का नाश अपने टङ्कारकारी बाण-वर्षी धनुष ही से कर दिया । अतएव यह कहना चाहिए कि बल में यदि वह इन्द्र से अधिक न था तो कम भी न था। उसका सामना करने वाले राजाओं में से एक से भी
उसके पौरुष का खण्डन न हो सका। सभी ने उससे हार खाई । हज़ारों नरपाल परास्त हो होकर, उस अखण्ड-पराक्रमी राजा के पास आकर उपस्थित हुए; और, देवता लोग जिस तरह इन्द्र के सामने अपने मस्तक झुकाते हैं उसी तरह उन्होंने भी राजा दशरथ के सामने अपने अपने मस्तक झुकाये । उस समय उनके मुकुटों पर जड़े हुए रत्नों की किरणें, दशरथ के पैरों पर पड़ कर, उन्हें चूमने लगी । ऐसा करते समय, उन किरणों का संयोग जो राजा दशरथ के पैरों के नखां की कान्ति के साथ हुआ तो उनकी चमक और भी अधिक हो गई। . दशरथ से शत्रुता करने वाले हज़ारों राजाओं की रानियाँ विधवा हो गई। उन बेचारियों का वाल-गूंथना और शृङ्गार करना बन्द हो गया। उन्होंने अपने छोटे छोटे कुमारों को,अपने मन्त्रियों के साथ, राजा दशरथ की शरण में भेजा । मन्त्रियों ने उनके हाथों की असली बाँध कर उन्हें राजा के सामने खड़ा किया। राजा को उन अल्पवयस्क राजकुमारों और उनकी माताओं पर दया आई । अत एव उन्हें अभयदान देकर वह महासागर के किनारे से आगे न बढ़ा और अलकापुरी के सदृश समृद्धि-शालिनी अपनी राजधानी को लौट आया।
समुद्र-तट तक के राजाओं को जीत कर यद्यपि वह चक्रवर्ती राजा हो गया, तथापि उसके एक-च्छत्र राजा हो जाने से और किसी राजा को अपने ऊपर सफेद छत्र धारण करने का अधिकार न रहा,और कान्ति में यद्यपि वह अग्नि और चन्द्रमा की बराबरी करने लगा, तथापि उसने आलस्य को अपने पास न फटकने दिया । बड़ी मुस्तैदी से वह प्रजा-पालन और देश-शासन करने लगा। उसने कहा :-"इस लक्ष्मी का विश्वास करना भूल है। कहीं ज़रा सा भी छेद पाने से कुछ भी बहाना इसे मिल जाने से -यह फिर नहीं ठहरती। अतएव अपना कर्त्तव्य-पालन सावधानतापूर्वक करना चाहिए । ऐसा न हो जो यह आलस ही को छिद्र (दोष)समझ कर मुझ से रूठ जाय । अतएव मुझे छोड़ जाने के लिए मैं इसे मौका ही न दूंगा।" परन्तु दशरथ का यह सन्देह निमूल था। क्योंकि कमलासना लक्ष्मी पतिव्रता है। इस कारण याचकों का आदर-सत्कार करके मुंहमाँगा धन देने वाले उस ककुत्स्थवंशी राजा, और विष्णु भगवान्, को छोड़ कर और था ऐसा कौन जिसकी सेवा करने के लिए वह उसके पास जा सकती ? लक्ष्मी की की हुई सेवा का सुख उठाने के पात्र उस समय,विष्णु और विष्णु के समकक्ष दशरथ ही थे, और कोई नहीं।
अपना राज्य दृढ़ कर चुकने पर दशरथ ने विवाह किया। पर्वतों की
बेटियाँ नदियों ने सागर को जिस तरह अपना पति बनाया है उसी तरह मगध,कोशल और केकय देश के राजाओं की बेटियों ने, शत्रुओं पर बाणवर्षा करने वाले दशरथ को, अपना पति बनाया । अपनी उन तीनों प्रियसमा रानियों के साथ वह ऐसा मालूम हुआ जैसे प्रजा की रक्षा के लिए प्रभाव,मन्त्र और उत्साह नामक तीनों शक्तियों के साथ, सुरेश्वर इन्द्र पृथ्वी पर उतर आया हो।
शत्रु-नाश का उपाय करने में वह बड़ाही निपुण था। महारथी भी वह एक ही था । अतएव उसे एक समय इन्द्र की सहायता करनी पड़ो । दैत्यों के मुकाबले में देवताओं के लिए घनघोर युद्ध करके उसने अद्भुत वीरता दिखाई । युद्ध में देवताओं ही की जीत हुई। दशरथ के शरों के प्रभाव से देवनारियों का सारा डर छूट गया। दैत्यों के उत्पात से उन्हें छुटकारा मिल गया । इससे वे दशरथ की बड़ी कृतज्ञ हुई और उसकी भुजाओं के प्रबल पराक्रम की उन्होंने बड़ी बड़ाई की । उसकी प्रशंसा में उन्होंने गीत तक गाये । इस युद्ध में धनुष हाथ में लिये और अपने रथ पर सवार महाबली दशरथ ने, इन्द्र के आगे बढ़ कर, अकेले ही इतना भीषण युद्ध किया कि युद्ध के मैदान में उड़ी हुई धूल से सूर्य छिप सा गया । यह देख दशरथ ने दैत्यों के रुधिर की नदियाँ बहा कर सूर्य का अवरोध करने वाली उस धूल को एकदम दूर कर दिया-उसे साफ़ धो डाला। ऐसा उसे कई दफ़े करना पड़ा, एक ही दफ़े नहीं।
दशरथ ने अपने भुजबल से अपार सम्पत्ति एकत्र कर ली। एक भी दिशा ऐसी न थी जहाँ से वह ढेरों सोना न लाया हो । इस प्रकार बहुत साधनसञ्चय हो जाने पर, तमोगुण का सर्वथा त्याग करके, उसने यज्ञ के अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिये । सिर पर शोभा पाने वाले मुकुट को तो उतार कर उसने रख दिया और यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कर ली । तदनन्तर, उसने यूप-नामक सोने के यज्ञ- स्तम्भों से सरयू और तमसा के तीर परिपूर्ण कर दिये। उन स्तम्भों से इन दोनों नदियों के तटों की शोभा बहुत ही बढ़ गई । यज्ञ का आरम्भ होने पर दशरथ ने मृगचर्म धारण किया। कमर में कुश की मेखला पहनी । एक हाथ में पलाश का दण्ड और दूसरे में हिरन का सींग लिया । बोलना छोड़ दिया-मौन धारण कर लिया।
यज्ञानुष्ठान के इन चिह्नों से सुशोभित हुए उसके शरीर में प्रवेश करके अष्टमूर्ति महादेव ने उसे बहुत ही अधिक मनोहर कर दिया । उसमें अनुपम कान्ति उत्पन्न हो गई। शङ्कर के निवास से दशरथ का शरीर अलौकिक शोभाशाली हो गया। उसके यज्ञकार्य निर्विन समाप्त हुए । अन्त में उस जितेन्द्रिय राजा ने अवभृथ-नामक पवित्र स्नान करके यज्ञ के कामों से छुट्टी पाई।
राजा दशरथ का महत्व और प्रभुत्व त्रिलोक में विख्यात था महिमा,प्रभुता और शूरवीरता आदि गुणों के कारण देवता भी उसका आदर करते थे । और, वह देवताओं की सभा में बैठने योग्य था भी। नमुचि के शत्रु, वारिवर्षी, इंद्र को छोड़ कर और किसी के भी सामने उसने कभी अपना उन्नत मस्तक नहीं झुकाया ।
राजा दशरथ बड़ा ही प्रतापी हुआ। उसमें अपूर्व बल-विक्रम था । देश-देशान्तरों तक में उसका आतङ्क छाया हुआ था। प्रभुता और अधिकार में वह इन्द्र, वरुण, यम और कुवेर के समान था। नये फूलों से ऐसे धुरन्धर चक्रवर्ती राजा की पूजा सी करने के लिए वसन्त ऋतु का आगमन हुआ।
वसन्त का आविर्भाव होते ही भगवान सूर्य ने अपने सारथी अरुण को आज्ञा दीः-"रथ के घोड़ों को फेर दो । अब मैं धनाधिप कुवेर की बस्ती वालो दिशा की तरफ़ जाना चाहता हूँ।" अरुण ने इस आज्ञा का तत्काल पालन किया और सूर्य ने, उत्तर की तरफ़ यात्रा करने के इरादे से, मलयाचल को छोड़ दिया । परिणाम यह हुआ कि जाड़ा कम हो गया और प्रातःकाल की वेला बड़ी ही मनोहारिणी मालूम होने लगी।
पादपों से परिपूर्ण वन-भूमि में उतर कर वसन्त ने, क्रम क्रम से, अपना रूप प्रकट कियाः-पहले तो पेड़ों पर फूलों की उत्पत्ति हुई । फिर नये नये कोमल पत्ते निकल आये । तदनन्तर भारों की गुजार और कोयलों की कूक सुनाई पड़ने लगी।
सज्जनों का उपकार करने ही के लिए राजा लोग सम्पत्ति एकत्र करके उसे, अपने सुनीति सम्बन्धी सद्गुणों से, बढ़ाते हैं । वसन्त भी औरों ही के उपकार के लिए कमलों को सरोवरों में प्रफुल्लित करता और उनमें सरसता, सुगन्धि तथा पराग आदि उत्पन्न करके उनकी उपयोगिता को बढ़ाता है। वनस्थली में उतर कर, इस दफ़े, उसने अपने इस काम को बहुत ही अच्छी तरह किया । फल यह हुआ कि राजाओं से सम्पत्ति पाने की अभिलाषा से याचक लोग जैसे उनके पास दौड़ जाते हैं वैसे ही वसन्त की कमल-समूहरूपिणी सम्पत्ति के पास सैकड़ों भौंरे और जल के पक्षी दौड़ गये । वसन्त आने पर, अशोक के खूब खिले हुए नवीन फूलों ने रसिकों के चित्त चञ्चल कर दिये। उन्हींने क्यों, कामिनियों के कानों में खुसे हुए लाल लाल कोमल पत्तों ने भी उनके हृदयों में उत्कण्ठा उत्पन्न कर दी। कुरबक-नाम के पेड़ों पर तो फूल ही फूल दिखाई देने लगे। उनसे उपवनों का सुहावनापन और भी अधिक हो गया । वे ऐसे मालूम होने लगे जैसे उपवनों की शोभा के शरीर पर, उसके प्रेमपात्र वसन्त ने, चित्र विचित्र टटके बेल-बूटे बना दिये हों । इन पेड़ों ने भाँरों को अपने फूलों का मधु दे डालने की ठानी। अतएव सैकड़ों भौंरे उनके पास पहुँच गये और बड़े प्रेम से गुजार करके उनका गुणगान सा करने लगे। दानियों की स्तुति होनी ही चाहिए । यह देख कर वकुल के वृक्षों से भी न रहा गया। कुरबकों का अनुकरण करके उन्होंने भी दानशील बनना चाहा । इनमें यह विशेषता होती है कि जब तक कोई सौभाग्यवती कामिनी मद्य का कुल्ला इन पर नहीं कर देती तब तक ये फूलते ही नहीं। इस कारण, इनके फूलों में मद्य का गुण भी पाया जाता है। इनके औदार्य का समाचार सुन कर मधु के लोभी मधुकरों की बन आई । उनके झुण्ड के झुण्ड दौड़ पड़े और बेचारे वकुलों पर ऐसे टूटे कि उन्हें व्याकुल कर दिया । एक दो याचक हो तो बात दूसरी है । हजारों का कोई कहाँ तक सत्कार करे।
शिशिर की प्रायः समाप्ति हो चुकी थी। अब था वसन्त का राज्य । उसकी राज्य-लक्ष्मी ने कहा:-"औरों को हमसे बहुत कुछ मिल चुका;एक मात्र पलाशों ही ने अभी तक कुछ नहीं पाया।" यह सोच कर उन्हें उसने लाल लाल कलियों के सैकड़ों गुच्छे दे डाले । उनको भी उसने निहाल कर दिया । स्त्रियों के क्षत-विक्षत औंठों को जाड़ा दुःसह होता है । उन्हें जाड़ों में कमर से करधनी भी उतार कर रख देनी पड़ती है। क्योंकि वह ठंढी मालूम होती है। जाड़ों ही के कारण उन्हें यह सब कष्ट उठाना पड़ता है। सो यद्यपि इस क्लेशदायक जाड़े के जाने का समय आ गया था; तथापि, तब तक सूर्य उसे बिलकुल ही दूर न कर सका था। हाँ, उसने कम उसे ज़रूर कर दिया था।
अब ज़रा नई मजरी से लदी हुई आम की लता का हाल सुनिए । मलयाचल से आई हुई वायु के झोंकों से उसके पत्ते जो हिलने लगे तो ऐसा मालूम होने लगा जैसे वह अपने हाथ हिला हिला कर,नर्तकी की तरह,भाव बताने का अभ्यास कर रही हो । औरों की तो बात ही नहीं,उसने अपने इन हाव-भावों से रागद्वेष और काम-कल्लोल जीते हुए जनों का भी मन मतवाला कर दिया।
सुगन्धित और प्रफुल्लित वनों तथा उपवनों में, अब, कोयलों की पहली कूक- नवोढ़ा नायिकाओं के मित भाषण की तरह-ठहर ठहर कर,थोड़ी थोड़ी, सुनाई देने लगी।
उपवनों के किनारेवाली लताओं पर भी वसन्त का असर पड़ा । भौंरों की कर्ण-मधुर गुजारों के बहाने गीत सी गाती हुई, खिले हुए फूलों के बहाने दाँतों की मनोहर द्यु ति सी दिखलाती हुई, और पवन के हिलाये हुए पत्तों के बहाने हाथों से भाव सी बताती हुई वे बहुत ही अच्छी मालूम होने लगीं । उनकी शोभा और सुन्दरता बेहद बढ़ गई।
जब कोयलों, भ्रमरों और वृक्ष-लतादिकों को भी वसन्त ने कुछ का कुछ कर डाला तब मनुष्यों की क्या कथा है ? उनकी उमङ्गों की तो सीमा ही न रही। पति-पत्नियों ने खूब ही मद्य पिया-वह मद्य जो अपनी सुगन्धि से वकुल के फूलों की सुगन्धि को भी जीत लेता है, हास-विलास कराने में जो अपना सानी नहीं रखता और परस्पर का प्रेम अटल होने में जो ज़रा भी विघ्न नहीं आने देता।
घर की बावड़ियों में कमल के फूल छा गये । मतवालेपन के कारण बहुत ही मधुर आलाप करनेवाले जलचर पक्षी उनमें कलोलें करने लगे। कमल के फूलों और कलरव करनेवाले पक्षियों से इन बावड़ियों की शोभा बहुत ही मनोहारिणी हो गई । वे उन स्त्रियों की उपमा को पहुँच गई जिनके मुखमण्डलों की सुन्दरता, मन्द मन्द मुसकान के कारण,अधिक हो गई है और,जिनकी कमर की करधनियाँ ढीली हो जाने के कारण,खूब बज रही हैं।
बेचारी रजनी-वधू को वसन्त ने खण्डिता बना दिया। उसका चन्द्रमारूपी मुख पीला पड़ गया। पति के संयोग-सुख से वञ्चित हुई खण्डिता नायिका के समान वह भी, दिन पर दिन, क्षीण होती चली गई-जैसे जैसे दिन बढ़ता गया, वैसे ही वैसे वह छोटी होती गई।-
२४ परिश्रम का परिहार करनेवाली चन्द्रमा की किरणों की छटा,तुषार- वृष्टि बन्द हो जाने के कारण, पहले से अधिक उज्ज्वल हो गई। अपने मित्र की किरणों की उज्ज्वलता अधिक हो गई देख शृङ्गार-रस के अधिकारी देवता का हौसला बहुत बढ़ गया। उसकी ध्वजा खूब फहराने लगी। उसके धनुर्बाण में विशेष बल आ गया। चन्द्र-किरणों ने उसके शस्त्रास्त्रों को मानो सान पर चढ़ा कर उनकी धार और भी तेज कर दी।
कर्णिकार के जितने पेड़ थे सब खिल उठे । हवन की अग्नि की लपट के समान, उनके फूलों का लाल लाल रंग बहुत ही भला मालूम होने लगा । वन की शोभारूपिणी सुन्दरी ने इन फूलों को यहाँ तक पसन्द किया कि इन्हीं को उसने सोने के गहनों की जगह दे डाली-सुवर्णाभरण के सदृश इन्हीं को उसने अपने शरीर पर धारण कर लिया । रसिक जनों को भी ये फूल बहुत अच्छे लगे। उन्होंने इन फूलों को पत्ते सहित तोड़ कर अपनी अपनी पत्नियों को भेंट किया। केसर और पत्ते लगे हुए ऐसे सुन्दर फूल पा कर वे भी बहुत खुश हुई और बड़े प्रेम से उन्होंने उनको अपनी अलकों में स्थान दिया- उनसे बाल गूंथ कर उन्होंने अपने को कृतार्थ समझा।
तिलक-नाम के पेड़ों पर भी फूल ही फूल दिखाई देने लगे । उनके फूलों की पाँतियों पर,काजल के बड़े बड़े बूंदों के समान, सुन्दर भौरे बैठे देख ऐसा मालूम होने लगा जैसे वे वनभूमिरूपिणी नायिका के माथे के तिलक ही हों । कभी ऐसा न समझिए कि उनसे वन की भूमि सुशोभित नहीं हुई। नहीं, उनसे उसकी वैसी ही शोभा हुई जैसी कि माथे पर तिलक लगाने से कामिनियों की होती है।
मधु की सुगन्धि से सुगन्धित हो कर, मल्लिका नाम की नई लतायें,अपने पेडरूपी पतियों के साथ, आनन्दपूर्वक विलास करने लगीं। इतना हो नहीं, किन्तु अपने नवल-पल्लवरूपी अोठों पर, फूलरूपी मन्द मुसकान की छटा दिखा कर, वे देखने वालों का मन भी मत्त करने लगी।
सूर्य के सारथी अरुण के रङ्ग को भी मात करने वाले वसन्ती वस्त्र,कानों पर रक्खे हुए यव के अंकुर और कोयलों की कूक ने शृङ्गार-रस का यहाँ तक उद्दीपन कर दिया कि रसिक लोग उसमें एकदम ही डूब से गये। हाँ तिलक-वृक्ष की कलियों के गुच्छों का हाल तो रही गया। उनकी शोभा का भी समाचार सुन लीजिए । वसन्त आने पर, उनकी प्रत्येक पंखुडी,पराग के सफ़ेद सफ़ेद कणों से,पुष्ट हो गई और भाँरों के झुण्ड के झुण्ड उन पर बैठने लगे। शुभ्रता और कालिमा का आश्चर्यजनक मेल होने लगा । भाँरों को इन पर बैठे देख जान पड़ने लगा जैसे काली काली अलकों में सफ़ेद मोतियों की लड़ियाँ गुंथी हों।
हवा के झोंकों से उपवनों के फूल जो हिले तो उनका पराग गिर गिर कर चारों तरफ़ फैल गया और हवा के साथ ही वह भी इधर उधर उड़ने लगा । बस, फिर क्या था, जिधर पराग की रेणुका गई उधर ही उसकी सुगन्धि से खिंचे हुए भौरे भी, उसके पीछे पीछे, उड़ते गये । इस परागरेणु को कोई ऐसी वैसी चीज़ न समझिए । वासन्ती शोभा इसी के चूर्ण को अपने चेहरे पर मल कर अपने लावण्य की वृद्धि करती है और कुसुम शायक इसी को अपनी पताका का पट बनाता है।
उद्यानों में नये झूले पड़ गये । सब लोग अपने अपने प्रेम-पात्रों को साथ लेकर झूलने और वसन्त-सम्बन्धी उत्सव मनाने लगे। इतने में कोयलों ने, अपनी कूकों के बहाने, वसन्त के सखा की आज्ञा इस प्रकार सुनाई :-"देखना, जो इस समय किसी ने आपस में विरोध किया ! मान को एकदम दूर कर दो । विग्रह और विरोध छोड़ दो। ऐसा समय बार बार नहीं आता। उम्र भी सदा एक सी नहीं रहती ।" कहने की आवश्यकता नहीं, लोगों ने इस आज्ञा के अक्षर अक्षर का परिपालन किया।
राजा दशरथ ने भी,अपनी विलासिनी रानियों के साथ,वसन्तोत्सव
का यथेष्ट आनन्द लूटा । उत्सव समाप्त होने पर उसके हृदय में शिकार खेलने की इच्छा उत्पन्न हुई। अतएव, विष्णु के समान पराक्रमी, वसन्त के समान सौरभवान् और मन्मथ के समान सुन्दर उस राजा ने,इस विषय में, अपने मन्त्रियों से सलाह ली। उन्होंने कहा:-"बहुत अच्छी बात है। आप शिकार खेलने जाइए। शिकार से कोई हानि नहीं। उससे तो बहुत लाभ हैं । भागते हुए हिरनों और दुसरे जङ्गली जानवरों का शिकार करने से मनुष्य को हिलते हुए निशाने मार लेने का अभ्यास हो जाता है। उसे इस बात का भी ज्ञान हो जाता है कि क्रोध में आने और डर जाने पर जानवर कैसी चेष्टा करते हैं। शिकारी को जानवरों की चेष्टा ही से यह मालूम हो जाता है कि इस समय वे क्रोध में हैं और इस समय डरे हुए हैं । शिकार में दौड़-धूप का काम बहुत रहता है । इससे म ष्य श्रमसहिष्णु भी हो जाता है। बिना थकावट के वह बड़े बड़े श्रमसाध्य काम कर सकता है । श्रम करने से शरीर फुर्तीला रहता है । इनके सिवा शिकार में और भी कितने ही गुण हैं।"
मन्त्रियों की सम्मति अनुकूल पाकर दशरथ ने शिकारी कपड़े पहने । शिकार का सब सामान साथ लिया। अपने पुष्ट कंठ में धनुष डाला। मृग, सिंह और वराह आदि जङ्गली पशुओं से परिपूर्ण वन में प्रवेश करने के इरादे से, उस सूर्य के समान प्रतापी राजा ने अपनी राजधानी से प्रस्थान कर दिया । अपने साथ उसने चुनी हुई थोड़ी सी सेना भी ले ली। उसके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उड़ी कि आकाश में उसका चॅदोवा सा तन गया । वन के पास पहुँच कर दशरथ ने वन के ही फूलों की मालाओं से अपने सिर के बाल बाँधे और पेड़ों की पत्तियों ही के रङ्ग का कवच शरीर पर धारण किया । फिर, एक तेज़ घोड़े पर सवार होकर वह वन के उस भाग में जा पहुँचा जहाँ रुरु नाम के मृगों की बहुत अधिकता थी। उस समय घोड़े के उछलने-कूदने और सरपट भागने से उसके कानों के हिलते हुए कुण्डल बहुत ही भले मालूम होने लगे। दशरथ का वह शिकारी वेश सचमुच ही बहुत मनोहर था। उसे देखने की इच्छा वन देवताओं तक को हुई। अतएव उन्होंने, कुछ देर के लिए, पतली पतली लताओं के भीतर अपनी आत्माओं का प्रवेश करके, भारों की पाँतियों को अपनी आँखें बनाया। फिर, उन्होंने सुन्दर आँखों वाले, और न्यायसङ्गत शासन से कोसल-देश की प्रजा को प्रसन्न करने वाले, दशरथ को जी भर कर देखा।
राजा ने वन के जिस भाग में शिकार खेलने का निश्चय किया था वहाँ शिकारी कुत्ते और जाल ले लेकर उसके कितने ही सेवक पहले ही पहुँच गये थे। उनके साथ ही उसके कितने ही कर्मचारी, शिकारी और सिपाही भी पहुँच चुके थे । उन्होंने वहाँ जितने चोर, लुटेरे और डाकू थे सब भगा दिये । वन की दावाग्नि भी बुझा दी । राजा के पहुँचने के पहले ही उन्होंने सब तैयारी कर रक्खी । वह जगह भी शिकार के सर्वथा योग्य थी। पानी की कमी न थी। जगह जगह पर जलाशय भरे हुए थे और पहाड़ी झरने बह रहे थे। ज़मीन भी वहाँ की खूब कड़ी थी; घोड़ों की टापों से वह फूट न सकती थी। हिरन, पक्षी और सुरागायें भी उसमें खूब थौं । सभी बातों का सुभीता था ।
सुनहली बिजली की प्रत्यञ्चा वाले पीले पीले इन्द्रधनुष को जिस तरह भादों का महीना धारण करता है उसी तरह सारी चिन्ताओं से छूटे हुए उस राजा ने, उस जगह पहुँच कर, प्रत्यञ्चा चढ़ा हुआ अपना धनुष धारण किया। उसे हाथ में लेकर उस नर-शिरोमणि ने इतने ज़ोर से टङ्कार किया कि गुफाओं में सोते हुए सिंह जाग पड़े और क्रोध से गरजने लगे।
वह कुछ दूर वन में गया ही था कि सामने ही हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। उस झुण्ड के आगे तो गर्व से भरे हुए कृष्णसार नामक बड़े बड़े हिरन थे; पीछे और जाति के हिरन । वे, उस समय, चरने में लगे हुए थे। अतएव उनके मुँहों में घास दबी हुई थी। कुंड में कितनी ही नई ब्याई हुई हरिनियाँ भी थीं । वे सब चरने में लगी थीं। उनके बच्चे बार बार उनके थनों में मुँह लगा लगा कर उनके चलने-फिरने और चरने में विघ्न डाल रहे थे। हरिनियों को चरने की धुन थी, बच्चों को दूध पीने की। इस झुण्ड को देखते ही राजा ने अपने तेज़ घोड़े को उसकी तरफ़ बढ़ाया और तूणीर से बाण खींच कर धन्वा पर रक्खा । घोड़े पर उसे अपनी तरफ आते देख हिरनों में हाहाकार मच गया । वे जो पाँत बाँधे चर रहे थे वह पाँत उनकी टूट गई । जिसे जिस तरफ़ जगह मिली वह उसी तरफ़ व्याकुल होकर भागा । उस समय आंसुओं से भीगी हुई उनकी भयभीत दृष्टियों ने-मानों पवन के झकोरे हुए नील कमल की पंखुड़ियों ने उस सारे वन को श्याम- तामय कर दिया।
इन्द्र के समान पराक्रमी दशरथ ने उन भागते हुए हिरनों में से एक पर शर-सन्धान किया । उस हिरन की हिरनी भी उस समय उसके साथ ही थी । हिरनी ने देखा कि राजा मेरे पति को अपने बाण का निशाना बनाना चाहता है । अतएव वह वहीं खड़ी हो गई और हिरन को अपनी . आड़ में कर लिया। उसने मानों कहा- "मैं अपने पति की सहचरी हूँ। विधवा होकर मैं अकेली जीना नहीं चाहती । इससे पहले मुझे मार डाल ।" यह अलौकिक दृश्य देख कर उस धनुषधारी का हृदय दया सेज्ञआर्द्र हो पाया। बात यह थी कि वह स्वयं भी आदर्शप्रेमी था और प्रेम की महिमा अच्छी तरह जानता था । अतएव,उसने ऐसे प्रेमी जोड़े को मारना मुनासिब न समझा । फल यह हुआ कि कान तक खींचे गये बाण को भी उसने धनुष से उतार लिया । दूसरे हिरनों पर बाण छोड़ने की इच्छा रहते भी, उसकी कड़ी से भी कड़ी मुट्ठी ढीली होगई-कान तक जा जाकर भी उसका हाथ पीछे लौट लौट आया । भयभीत हुई हिरनियों की आँखे देखते ही उसे अपनी प्रौढ़ा रानियों के कटाक्षों का स्मरण हो आया। इस कारण, प्रयत्न करने पर भी, उसके हाथ से बाण न छूटा ।
तब उसने सुवर मारने का विचार किया। उस समय वे कुण्डों के भीतर मोथ नामक घास खोद खोद कर खा रहे थे । ज्योंही उन्होंने राजा के आने की आहट पाई त्योंही तत्काल वे कीचड़ से निकल भागे । भागते समय उनके मुँहों से माथे के तिनके गिरते चले गये और उनके भीगे हुए खुरों के चिह्न भी मार्ग में साफ साफ़ बनते गये । मोथे के इन अंकुरों और पैरों के इन चिह्नों से राजा को मालूम हो गया कि इसी रास्ते सुवर भागे हैं । बस, फिर क्या था, तुरन्त ही उसने उनका पीछा किया । वह कुछ ही दूर आगे गया होगा कि भागते हुए सुवर उसे दिखाई दिये । घोड़े पर बैठे हुए राजा ने, अपने शरीर के अगले भाग को कुछ झुका कर, धनुष पर बाण रक्खा । सुवर भी, उस पर धावा करने के इरादे से, शरीर के बाल खड़े कर के,पेड़ों से सट कर खड़े हो गये । इतने में इतने वेग और इतनी शीघ्रता से दशरथ के बाण छूटे कि उन्होंने सुवरों और उन पेड़ों को, जिनसे सटे हुए वे खड़े थे, एकही साथ छेद दिया। सुवरों को मालूम ही न हुआ कि कब बाण छूटे और कब वे छिदे । छिद जाने पर उन्हें इसकी खबर हुई ।
इतने में एक जङ्गली भैंसा बड़े वेग से उस पर आक्रमण करने दौड़ा। यह देख राजा ने एक बाण खींच कर इतने ज़ोर से उसकी आँख पर मारा कि भैंसे के सारे शरीर को बेध कर, पूंछ में रुधिर लगे बिना ही, वह बाहर जमीन पर जा गिरा । परन्तु पहले उसने उस भैंसे को गिरा दिया, तब आप गिरा-बाण लगते ही भैंसा गिर गया, बाण उसके गिर जाने के बाद उसके शरीर से बाहर निकला। यह, तथा पूंछ (पुङ) में रुधिर का स्पर्श हुए बिना ही शरीर छेद कर वाण का बाहर निकल आना, दशरथ के हस्त-लाघव और धनुर्विद्या-कौशल का फल था।
राजा दशरथ ने अपने तेज बाणों से,न मालूम कितने,गैंडों के सींग काट कर उनके सिर हलके कर दिये; पर उन्हें जान से नहीं मारा। इन गैंडों को अपने बड़े बड़े सींगों का बड़ा गर्व था । वे उन्हें अपनी प्रधानता का कारण समझते थे। यह बात दशरथ को बहुत खटकी । अपने रहते उससे उनका अभिमान और प्रधानता-सम्बन्धो दम्भ न सहा गया। कारण यह था कि अभिमानियों और दुष्टों का दमन करना वह अपना कर्तव्य समझता था। इसी से उसने उनके अभिमान के आधार सींग काट डाले । वही उसे असह्य थे, उनकी दीर्घ आयु नहीं। उसने कहा:-"तुम लोग सौ नहीं, चाहे पाँच सौ वर्ष जीते रहो । मुझे इसकी कुछ भी परवा नहीं। परवा मुझे सींगों के ऊँचेपन के कारण उत्पन्न हुए तुम्हारे अभिमान ही की है। अतएव मैं उस ऊँचेपन को दूर किये बिना न रहूँगा।"
इसके अनन्तर उसने बाघों का शिकार प्रारम्भ किया। उसके शिकारियों का हल्ला-गुल्ला सुन कर बड़े बड़े बाघ गुफाओं से तड़पते हुए बाहर निकल आये और राजा पर आक्रमण करने चले । उस समय वे ऐसे मालूम हुए जैसे फूलों से लदी हुई सर्ज-वृक्ष कि बड़ी बड़ी डालियाँ, हवा से टूट कर उड़ती हुई, सामने आ रही हो। परन्तु बाण मारने में दशरथ का अभ्यास यहाँ तक बढ़ा हुआ था और उसके हाथों में इतनी फुर्वी थी कि पल ही भर में उसने उन बाघों के मुँहों के भीतर सैकड़ों बाण भर कर उन्हें तूणीर सा बना दिया। उन्हें जहाँ के तहाँ ही गिरा कर, झाड़ियों
और पेड़ों की कुञ्जों में छिपे बैठे हुए सिंह मारने का उसने इरादा किया। अतएव, बिछली की कड़क के समान भयङ्कर शब्द करने वाली अपनी प्रत्यञ्चा की घोर टङ्कार से उसने उनके रोष को बढ़ा दिया । सिंहों को, उनके शौर्य और वीर्य के कारण, पशुओं में जो राजा की पदवी मिली है वह दशरथ को सहन न हुई । राजा की पदवी का एक मात्र अधिकारी उसने अपने ही को समझा । इसी से वह ढूँढ़ ढूँढ़ कर सिंहों का शिकार करने लगा। ये सिंह हाथियों के घोर शत्रु थे । बड़े बड़े मतवाले हाथियों के मस्तक विदीर्ण करने के कारण इनके पजों के टेढ़े टेढ़े नुकीले नखों में गजमुक्ता लगे हुए थे-नखों से छिद कर वे वहीं अटक रहे थे। यह देख कर दशरथ का क्रोध दूना हो गया। उसने कहा-"युद्ध में जो हाथो मेरे इतने काम आते हैं उन्हीं को ये मारते हैं।” यह सोच कर उसने अपने पैने बाणों से उन सारे सिंहों को मार गिराया; एक को भी जीता न छोड़ा। उनका संहार करके उसने हाथियों की मृत्यु का बदला सा ले लिया-उनके ऋण से उसने अपने को उऋण सा कर दिया।
सिंहों का शिकार कर चुकने पर उसे एक जगह चमरी-मृग दिखाई दिये। अतएव, घोड़े की चाल को बढ़ा कर उसने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और कान तक खींच कर बरसाये गये बाणों से उनकी पूँछे काट गिराई । इन्हीं मृगों की पूंछों के बाल चमरों में लगते हैं। इसी से ये चमरी-मृग कहलाते हैं । दशरथ ने इन्हें भी, माण्डलिक राजाओं की तरह,चमरहीन करके कल की । उसने कहा:-"मेरे राज्य में मेरे सिवा और किसी को भी चमर रखने का अधिकार नहीं। इससे केवल इनके चमर छीन लेना चाहिए; इन्हें जान से मार डालने की ज़रूरत नहीं।"
इतने में उसने,अपने घोड़े के बिलकुल पास से उड़ कर जाता हुआ,एक बड़े ही सुन्दर पंख वाला मोर देखा । परन्तु उसे उसने अपने बाण का निशाना न बनाया; उसे उड़ जाने दिया। बात यह हुई कि उसे,उस समय,चित्र-विचित्र मालाओं से गुंथे हुए अपनी प्रियतमा रानी के शिथिल केशकलाप का तुरन्तही स्मरण हो आया । मोर-पंखों में रानी के जूड़े की समता देख कर उसने उस मोर को मारना उचित न समझा। प्रेमियों को अपने प्रेमपात्र के किसी अवयव या वस्तु की सदृशता यदि कहीं दिखाई देती है तो वे उसे भी प्रेमभरी दृष्टि से देखते हैं।
राजा दशरथ ने, इस प्रकार, बहुत देर तक, शिकार खेला। उसमें
उसे बहुत श्रम पड़ा । इस कारण उसके मुंह पर मोतियों के समान पसीने के कण छा गये । परन्तु नये, निकलते हुए पत्तों के मुँह खोलने वाली, और, हिम के कणों से भीगी हुई, वन की वायु ने उन्हें शीघ्र ही सुखा दिया। ठंढी हवा लगने से उसके परिश्रम का शीघ्र ही परिहार हो गया। राज्य का काम-काज तो वह अपने मन्त्रियों को सौंपही चुका था। उसकी उसे कुछ चिन्ता थी ही नहीं। अतएव, निश्चिन्त होकर और अन्य सारे काम भुला कर, वह मृगया ही में रत हो गया। उसका मृगया-विषयक अनुराग बढ़ता ही गया। फल यह हुआ कि चतुरा नायिका की तरह मृगया ने उस पृथ्वीपति को बिलकुलही अपने वश में कर लिया। कभी कभी तो घने जङ्गलों में अकेले ही उसे रात बितानी पड़ी । नौकर-चाकर तक उसके पास नहीं पहुँच पाये; उनका साथ ही छूट गया । ऐसे अवसर उपस्थित होने पर, उसे सुन्दर सुन्दर फूलों और कोमल कोमल पत्तों की शय्या पर ही सोना, और चमकती हुई जड़ी-बूटियों से ही दीपक का काम लेना, पड़ा । प्रातःकाल होने पर, गज-यूथों के एकही साथ फटाफट कान हिलाने से जो ढोल या दुन्दुभी के सदृश शब्द हुआ उसी को सुन कर राजा ने समझ लिया कि रात बीत गई। अतएव वह जाग पड़ा और बन्दीजनों के मङ्गल-गान के सदृश पक्षियों का मधुर कलरव सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ। इस प्रकार जङ्गल में भी उसे जगाने और मन बहलाने का साधन मिल गया।
एक दिन की बात है कि राजा ने रुरु-नामक एक हिरन के पीछे घोड़ा छोड़ा । घोड़ा बड़े वेग से भागा । परिश्रम से वह पसीने पसीने हो गया। मुँह से भाग निकलने लगी। तिस पर भी राजा ने घोड़े को न रोका। वह भागता ही चला गया । अगल बगल दौड़ने वाले सवार और सेवक सब पीछे रह गये । राजा दूर निकल गया और तमसा नदी के तट पर,जहाँ अनेक तपस्वी रहते थे, पहुँचा । परन्तु उसके साथियों में से किसी ने भी न देखा कि राजा किधर गया । वहाँ उसके पहुंचने पर, नदी में जल से घड़ा भरने का गम्भीर नाद सुनाई दिया । राजा ने समझा कि नदी में कोई हाथी जल-विहार कर रहा है, यह उसी की चिग्धार है । अतएव जहाँ से शब्द आ रहा था वहाँ उसने एक शब्दवेधी बाण मारा । यह काम दशरथ ने अच्छा न किया। शास्त्र में राजा को हाथी मारने की आज्ञा नहीं। दशरथ ने उस आज्ञा का उल्लकन कर दिया। बात यह है कि शास्त्रज्ञ लोग भी, रजोगुण से प्रेरित होकर, कभी कभी, कुपथगामी हो जाते हैं । दशरथ का बाण लगते ही-"हाय पिता" कह कर, नदी के
२५ किनारे बेत के वृक्षों के भीतर से,किसी के रोने की आवाज़ आई । उसे सुनते ही राजा घबरा उठा और रोने वाले का पता लगाने के लिए वह तुरन्त ही उस जगह जा उपस्थित हुआ । वहाँ देखता क्या है कि एक मुनिकुमार बाण से बिधा हुआ तड़प रहा है और उसके पास ही उसका घड़ा पड़ा है। इस पर दशरथ को बड़ा दुःख हुआ । उसने भी अपने हृदय के भीतर बाण घुस गया सा समझा । वह प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा तत्कालही घोड़े से उतर पड़ा और उस शरविद्ध बालक के पास जाकर उसने उसका नाम-धाम पूछा । घड़े पर शरीर रख कर उसके सहारे पड़े हुए बालक ने, टूटे हुए शब्दों में, किसी तरह, बड़े कष्ट से उत्तर दिया:--"मैं एक ऐसे तपस्वी का पुत्र हूँ जो ब्राह्मण नहीं । मुझे आप ऐसा ही बाण से छिदा हुआ मेरे अन्धे माँ-बाप के पास पहुँचा दीजिए।" राजा ने तत्कालही उसकी आज्ञा का पालन किया । उसके माँ-बाप के पास पहुँच कर राजा ने निवेदन किया कि यह दुष्कर्म भूल से मुझसे हो गया है। जान बूझ कर मैंने आपके पुत्र को नहीं मारा।
मुनि-कुमार के अन्धे मां-बाप के एकमात्र वही पुत्र था। उसकी यह गति हुई देख उन दोनों ने बहुत विलाप किया। तदनन्तर, पुत्र के हृदय में छिदे हुए बाण को उन्होंने दशरथ ही के हाथ से निकलवाया । बाण निकलते ही बालक के प्राण भी निकल गये । तब उस बूढ़े तपस्वो ने हाथों पर गिरे हुए अाँसुओं ही के जल से दशरथ को शाप दिया:-
"मेरी ही तरह, बुढ़ापे में, तुम्हारी भी पुत्रशोक से मृत्यु होगी ।" प्रथमापराधी दशरथ ने यह शाप सुन कर-पैर पड़ जाने से दब गये,अतएव विष उगलते हुए साँप के सदृश उस तपस्वी से इस प्रकार प्रार्थना की:-
"भगवन् ! आपने मुझ पर बड़ी हो कृपा की जो ऐसा शाप दिया । मैं आपके इस शाप को शाप नहीं, किन्तु अनुग्रह समझता हूँ। क्योंकि,अब तक मैं नं पुत्र के मुख-कमल की शोभा नहीं देखी। पर वह आपकी बदौलत देखने को मिल जायगी । सच है, ईधन पड़ने से बढ़ी हुई आग,खेत की ज़मीन को जला कर भी, उसे बीज उपजाने वाली,अर्थात् उर्वरा,कर देती है।" यह सब हो चुकने पर राजा ने उस अन्धे तपस्वी से कहा:-"महाराज! मैं सचमुच ही महा निर्दयी और महा अपराधी हूँ। मैं सर्वथा आपके हाथ से मारा जाने योग्य हूँ। खैर, जो कुछ होना था सो हो गया। अब आप मुझे क्या आज्ञा देते हैं?” यह सुन कर मुनि ने अपने मृत पुत्र का अनुगमन करने की इच्छा प्रकट की। उसने स्त्री-सहित जल कर मर जाना चाहा। अतएव उसने राजा से आग और ईधन माँगा। तब तक दशरथ के नौकर-चाकर भी उले ढूँढ़ते हुए आ पहुँचे। मुनि की आज्ञा का शीघ्र ही पालन कर दिया गया। अपने हाथ से इतना बड़ा पातक हो गया देख, राजा का हृदय दुःख और सन्ताप से अभिभूत हो उठा। उसका धीरज छूट गया। अपने नाश के हेतु भूत उस शाप को वह-बड़- वानल धारण किये हुए समुद्र के समान हृदय में लिये हुए अपनी राजधानी को लौट आया।