रघुवंश/१०—रामचन्द्र आदि चारों भाइयों का जन्म

रघुवंश
कालिदास, अनुवादक महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ २०५ से – २१६ तक

 

दसवाँ सर्ग।

-:०:-

रामचन्द्र आदि चारों भाइयों का जन्म।


इन्द्र तुल्य तेजस्वी और महा-सम्पत्तिशाली दशरथ को, पृथ्वी का शासन करते, कुछ कम दस हज़ार वर्ष बीत गये। परन्तु जिस पुत्र नामक प्रकाश की प्राप्ति से शोकरूपी अन्धकार तत्काल ही दूर हो जाता है और जो पूर्वजों के ऋण से उऋण होने का एक मात्र साधन है वह उसे तब तक भी न प्राप्त हुआ। वह सन्तति-हीन ही रहा; उसे कोई पुत्र न हुआ। मथे जाने के पहले समुद्र के सारे रत्न उसके भीतर ही थे; बाहर किसी के देखने में न आये थे। उस समय, अर्थात् रत्नों के बाहर निकलने के पहले, समुद्र जैसा था, दशरथ भी इस समय वैसाही मालूम हुआ। रत्न समुद्र के भीतर अवश्य थे; परन्तु मथे बिना वे बाहर नहीं निकले । इसी तरह दशरथ के भाग्य में सन्तति थी तो अवश्य; परन्तु उत्पन्न होने के लिए वह किसी कारण की अपेक्षा में थी। अथवा यह कहना चाहिए कि वह अपने प्रकट करने वाले किसी योग की प्रतीक्षा में थी। वह योग अब आ गया। दशरथ के हृदय में पुत्र का मुंह देखने की लालसा चिरकाल ही से थी। जब वह आप ही आप न सफल हुई तब उसने शृङ्गी ऋषि आदि जितेन्द्रिय महात्माओं को आदर-पूर्वक निमन्त्रित करके उनसे यह प्रार्थना की कि मैं पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करना चाहता हूँ। आप कृपा करके मेरे ऋत्विज हूजिए। उन्होंने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया।

इस समय पुलस्त्य का पुत्र रावण देवताओं को बेहद सता रहा था। अतएव, उसके अन्याय और अत्याचार से तङ्ग आकर वे विष्णु भगवान के पास-धूप से सताये गये यात्री जिस तरह किसी छायावान् वृक्ष के
पास जाते हैं-जाकर उपस्थित हुए। ज्योंही वे क्षीर-सागर पहुँचे त्योंही भगवान् की योग-निद्रा खुल गई और वे जाग पड़े। देवताओं को वहाँ ठहरने या उन्हें जगाने की आवश्यकता न हुई। देवताओं ने इस बात को अपनी कार्य-सिद्धि का सूचक समझा। क्योंकि, देर न होना भी भावी कार्य-सिद्धि का चिह्न है। काम जब सफल होने को होता है तब न तो विलम्ब ही होता है और न कोई विघ्न ही आता है।

देवताओं ने जाकर देखा कि शेष के शरीररूपी आसन पर भगवान् बैठे हैं और शेष के फणामण्डल की मणियों के प्रकाश से उनके सारे अङ्ग प्रकाशमान हो रहे हैं। लक्ष्मी जी, कमल पर आसन लगाये, उनकी सेवा कर रही हैं। भगवान् के चरण उनकी गोद में हैं। लक्ष्मीजी मेखला पहने हुए हैं। परन्तु इस डर से कि कहीं भगवान् के पैरों में उसके दाने गड़ न जाय, उन्होंने उसके ऊपर अपनी रेशमी साड़ी का छोर डाल रक्खा है। इससे भी सन्तुष्ट न होकर साड़ी के ऊपर उन्होंने अपने कररूपी पल्लव बिछा दिये हैं। उन्हीं पर भगवान् के पैर रख कर उन्हें वे धीरे धीरे दाब रही हैं। भगवान् के नेत्र खिले हुए कमल के समान सुन्दर हैं। उनका पीताम्बर बाल-सूर्य की धूप की तरह चमक रहा है। उनका दर्शन योगियों को बहुत ही सुखदायक है। इन गुणों के कारण वे शरत्काल के दिन की

तरह शोभायमान हो रहे हैं । वह दिन-जिसके नेत्र खिले हुए कमल हैं, जिसका वस्त्र सूर्य का प्रातःकालीन घाम है, जिसका दर्शन पहले पहल बहुत ही सुखकारक होता है। देवताओं ने देखा कि भगवान अपनी चौड़ी छाती पर महासागर की सारभूत, और, सिंगार करते समय लक्ष्मीजी के लिए आइने का काम देने वाली, कौस्तुभ-मणि धारण किये हुए हैं। उसकी कान्ति से भृगुलता (भृगु के लात के चिह्न), अर्थात् श्रीवत्स, कई शोभा और भी अधिक हो रही है। बड़ी बड़ी शाखाओं के समान भगवान् की लम्बी लम्बी भुजायें दिव्य आभूषणों से आभूषित हैं। उन्हें देख कर मालूम होता है, जैसे समुद्र के भीतर भगवान्, दूसरे पारिजात वृक्ष की तरह, प्रकट हुए हैं। मदिरा पीने से उत्पन्न हुई लाली को दैत्यों की स्त्रियों के कपोलों से दूर करने वाले, अर्थात् उनके पतियों को मार कर उन्हें विधवा बनाने वाले, भगवान् के सजीव शस्त्रास्त्र उनका जय-जयकार कर रहे हैं।
१५४
रघुवंश।

गरुड़जी नम्रता-पूर्वक हाथ जोड़े हुए उनके सामने, उनकी सेवा करने के लिए, खड़े हैं। अमृत हरे जाने के समय लगे हुए वज्र के घावों के चिह्न, गरुड़जी के शरीर पर, स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं । भगवान् की शय्या का काम देने वाले शेष के सम्बन्ध में उन्होंने विरोध-भाव छोड़ दिया है। भगवान्की योग-निद्रा खुल जाने से, भृगु आदि महर्षि, उनके सामने उपस्थित होकर, उनसे पूछ रहे हैं:-"महाराज! आप सुख से तो सोये ?" और,भगवान् अपनी पवित्र दृष्टि से उनकी तरफ़ देख देख कर उन पर अपना अनुग्रह प्रकट कर रहे हैं।

दैत्यों के संहार-कर्ता विष्णु भगवान् के इस प्रकार दर्शन करके देवताओं ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तदनन्तर, जिन भगवान् की महिमा के पार न मन ही जा सकता है, न वाणी ही जा सकती है, और, जिनकी चाहे जितनी स्तुति की जाय कम है, उनका गुणगान वे इस तरह करने लगे:-

'आपही इस विश्व की उत्पत्ति करके पहले इसके कर्ता बनते हैं, तदनन्तर आपही इसका पालन-पोषण करके इसके भर्ती की उपाधि ग्रहण करते हैं; और, अन्त में, आपही इसका संहार करके इसके हर्ता हो जाते हैं। एक होकर भी आप, इस प्रकार, तीन रूप वाले हैं। आपको हमारा बार बार नमस्कार । आकाश से गिरे हुए जल का स्वादु असल में एक ही, अर्थात् मीठा, होता है। परन्तु जहाँ पर वह गिरता है वहाँ की ज़मीन जैसी होती है उसके अनुसार उसके स्वादु में अन्तर पड़ जाता है-कहीं वह खारी हो जाता है, कहीं कसैला, कहीं कड़ वा। इसी तरह आप यद्यपि

एक रूप हैं-आपका असली रूप यद्यपि एक ही है; उसमें कभी विकार नहीं होता-तथापि भिन्न भिन्न गुणों के आश्रय से आपका रूप भी भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हो जाता है। सत्व-गुण के आश्रय से आप सतोगुणी, रजोगुण के प्राश्रय से रजोगुणी और तमोगुण के आश्रय से तमोगुणी हो जाते हैं। आप स्वयं तो अपरिमेय हैं; पर इस सारे ब्रह्माण्ड को आपने माप डाला है। स्वयं तो आप किसी वस्तु की कामना नहीं रखते; पर औरों को कामनाये पूर्ण करने में आप अद्वितीय हैं। आप सदा ही सब पर विजय पाते हैं; पर, आज तक, कोई भी, कभी, आपको
१५५
दसवाँ सर्ग।

नहीं जीत सका। स्वयौं अत्यन्त सूक्ष्म होकर भी, आप ही इस स्थूल सृष्टि के आदि कारण हैं। भगवन् ! आप हृदय के भीतर बैठे हुए भी बहुत दूर मालूम होते हैं। यह हमारा मत नहीं; बड़े बड़े पहुँचे हुए महात्माओं का मत है। वे कहते हैं कि आप निष्काम होकर भी तपस्वी हैं; दयालु होकर भी दुःख से दूर हैं। पुराण-पुरुष होकर भी कभी बूढ़े नहीं होते ! आप सब कुछ जानते हैं; आप को कोई नहीं जानता। आप ही से सब कुछ उत्पन्न हुआ है; आपको उत्पन्न करने वाला कोई नहीं-आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं। आप सब के प्रभु हैं; आपका कोई प्रभु नहीं। आप एक होकर भी सर्वरूप हैं; ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसमें आपकी सत्ता न हो। सातों समुद्रों के जल में सोनेवाले आपही को बड़े बड़े विद्वान भूर्भुवः स्वः आदि सातों लोकों का आश्रय बताते हैं। वे कहते हैं कि 'रथन्तरं' 'बृहद्रथन्तरं' आदि सातों सामों मैं आपही का गुण-कीर्तन है; और काली, कराली आदि सातों शिखाओं वाली अग्नि आप ही का मुख है। चार मुखवाले आपही से चतुर्वर्ग–अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञान की उत्पत्ति हुई है । समय का परिमाण बताने वाले सत्य, त्रेता, आदि चारों युग तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्ण

भी आप ही से उत्पन्न हुए हैं। कठिन अभ्यास से अपने मन को अपने वश में करके, योगी लोग, हृदय में बैठे हुए परम-ज्योतिःस्वरूप आप ही का चिन्तन, मुक्ति पाने के लिए, करते हैं। आप अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। किसी प्रकार की इच्छा न रखने पर भी शत्रुओं का संहार करते हैं; सदा जागे हुए होकर भी सोते हैं। इस दशा में आपका यथार्थ ज्ञान किसे हो सकता है ? कौन ऐसा है जो आपको अच्छी तरह जान सके ? इधर तो आप राम, कृष्ण आदि का अवतार लेकर शब्द आदि के विषयों का उपभोग करते हैं; उधर नर-नारायण आदि का रूप धर कर घोर तपश्चर्या करते हैं । इधर दैत्यों का दलन करके प्रजा-पालन करते हैं, उधर चुपचाप उदासीनता धारण किये बैठे रहते हैं। इस तरह भोग और तपस्या, प्रजापालन और उदासीनता आदि परस्पर-विरोधी बर्ताव आप के सिवा और कौन कर सकता है ? सिद्धि तक पहुँचने के लिए सांख्य, योग, मीमांसा आदि शास्त्रों ने जुदा जुदा मार्ग बताये हैं । परन्तु-समुद्र में गङ्गा के प्रवाह ,
१५६
रघुवंश।

के समान-वे सारे मार्ग, अन्त को, आप ही में जा मिलते हैं। पुनर्जन्म के क्लेशों से छुटकारा पाने के लिए जो लोग, विषय-वासनाओं से विरक्त होकर, सदा आपही का ध्यान करते हैं और अपने सारे कम्मों का फल भी सदा आपही को समर्पण कर देते हैं उनकी सिद्धि के एक मात्र साधक आपही हैं। आपही की कृपा से वे जन्म-मरण के झंझटों से छूट जाते हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, समुद्र आदि प्रत्यक्ष पदार्थ ही आपकी अमित महिमा की घोषणा दे रहे हैं । वही पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि आपकी महिमा का ओर छोर नहीं। आपके उत्पन्न किये गये इन पदार्थों का ही सम्पूर्ण ज्ञान जब किसी को नहीं हो सकता तब इनके आदि-कारण आपका ज्ञान कैसे हो सकेगा ? वेदों और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध होने वाले आपकी महिमा की क्या बात है। वह तो सर्वथा अपरिमेय और अतुलनीय है। जब आप केवल स्मरण ही से प्राणियों को पावन कर देते हैं तब आपके दर्शन और स्पर्शन आदि के फलों का कहना ही क्या है । उनका अन्दाज़ा तो स्मरण के फल से ही अच्छी तरह है। जाता है। जिस तरह रत्नाकर के रत्नों की गिनती नहीं हो सकती और जिस तरह मरीचिमाली सूर्य की किरणों की संख्या नहीं जानी जा सकती, उसी तरह आपके अगम्य और अपरिमेय चरित भी नहीं वर्णन किये जा सकते । वे स्तुतियों की मर्यादा के सर्वथा बाहर हैं । ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आपको प्राप्त न हो । अतएव किसी भी वस्तु की प्राप्ति की आप इच्छा नहीं रखते । जब आपको सभी कुछ प्राप्त है तब आप किस चीज़ के पाने की इच्छा रक्खेंगे ? केवल लोकानुग्रह से प्रेरित होकर आप जन्म लेते और कर्म करते हैं। आपके जन्म और कर्म का कारण एकमात्र लोकोपकार है। लोक पर यदि आपकी कृपा न होती तो आपको जन्म लेने और कर्म करने की कोई आवश्यकता न थी। आपकी महिमा का गान करते करते, लाचार होकर, वाणी को रुक जाना पड़ता है । इसका कारण यह नहीं कि आपकी महिमा ही उतनी है । कारण यह है कि आपकी स्तुति करते करते वह थक जाती है। इसीसे असमर्थ होकर उसे

चुप रहना पड़ता है। सम्पूर्ण भाव से आपका गुण-कीर्तन करने में वह सर्वथा असमर्थ है।"
१५७
दसवाँ सर्ग।

इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा न जानने योग्य भगवान की इस प्रकार स्तुति करके देवताओं ने उन्हें प्रसन्न किया। जो कुछ उन्होंने कहा उसे परमेश्वर की प्रशंसा नहीं, किन्तु उनके गुणों का यथार्थ गान समझना चाहिए। क्योंकि, देवताओं का कथन सत्यता से भरा हुआ था। उसमें अतिशयोक्ति न थी। एक अक्षर भी उन्होंने बढ़ा कर नहीं कहा।

देवताओं का कथन समाप्त होने पर भगवान् ने उनसे कुशल-समा. चार पूंछा । इससे देवताओं को सूचित हो गया कि भगवान् उन पर प्रसन्न हैं। इस पर उन्होंने भगवान् से यह निवेदन किया कि रावणरूपी समुद्र, मर्यादा को तोड़ कर, समय के पहले ही, प्रलय करना चाहता है। इससे हम लोग अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं।

देवताओं से भय का कारण सुन चुकने पर, विष्णु भगवान् के मुख से बड़ी ही गम्भीर वाणी निकली। उसकी ध्वनि में समुद्र की ध्वनि डूब गई- उसने समुद्र की ध्वनि को भी मात कर दिया । समुद्र-तट के पर्वतों की गुफ़ाओं में घुस कर वह जो प्रतिध्वनित हुई तो उसकी गम्भीरता और भी बढ़ गई । पुराण-पुरुष विष्णु के कण्ठ, ओंठ, तालू आदि उच्चारणस्थानों से निकलने के कारण उस वाणी की विशुद्धता का क्या कहना । उसने अपना जन्म सफल समझा । वह कृतार्थ हो गई । भगवान् के मुख से निकलने, और उनके दाँतों की कान्ति से मिश्रित होने, से वह-चरण से निकली हुई ऊर्ध्ववाहिनी गङ्गा के समान-बहुत ही शोभायमान हुई। विष्णु भगवान ने कहा:-

"देहधारियों के सत्व और रजोगुण को जिस तरह तमोगुण दबा लेता है उसी तरह राक्षस रावण ने तुम्हारे महत्व और पराक्रम को दबा लिया है। यह बात मुझ से छिपी नहीं। अनजान में हो गये पाप से साधुओं का हृदय जैसे सन्तप्त होता है वैसे ही रावण से त्रिभुवन सन्तप्त हो रहा है। यह भी मुझे अच्छी तरह मालूम है। इस सम्बन्ध में इन्द्र को मुझ से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं । क्योंकि, हम दोनों का एक ही काम है। उनके काम को मैं अपना ही काम समझता हूँ। क्या अपनी सहायता करने के लिए अग्नि कभी पवन से प्रार्थना करता है ? अग्नि की सहायता करना तो पवन का कर्तव्य ही है-बिना कहे ही वह अग्नि

२६
१५८
रघुवंश ।

की सहायता के लिए सदा तत्पर रहता है । इन्द्र का और मेरा सम्बन्ध तुम, अग्नि और पवन ही का जैसा सम्बन्ध, समझो । रावण के नौ सिर तो उसी के खन से कट चुके हैं, दसवाँ नहीं कटा। वह उसके खङ्ग से बच रहा है । उसे उसने मेरे चक्र का उचित भाग सा समझ कर, उससे काटे जाने के लिए, रख छोड़ा है । चन्दन का वृक्ष जैसे सर्प का चढ़ना सहन करता है उसी तरह, ब्रह्मा के वरदान के प्रभाव से मैं उस दुरात्माज्ञसुर-शत्रु का सिर चढ़ना, किसी तरह, सहन कर रहा हूँ। उग्र तपस्याज्ञकरके उसने ब्रह्मा को प्रसन्न किया, तो ब्रह्मा उसे वर देने को तैयार हुए। इस पर उसने यह वर माँगा कि मैं देवताओं के हाथ से न मर सकूँ। मनुष्यों को तो वह कोई चीज़ हो नहीं समझता। इससे उनके हाथ से न मारे जाने का वर उसने न माँगा । ब्रह्मा के इसी वरदान की बदौलत वह अजेय हो रहा है; कोई देवता उसे नहीं मार सकता । अब मैं मनुष्य का अवतार लेकर ही उसे मारूँगा । मैं राजा दशरथ का पुत्र होकर, अपने पैने बाणों से उसके सिर काट काट कर, रणभूमि की पूजा के लिए, उन्हें कमलों का ढेर बना दूंगा । घबराओ मत; मैं उसके सिररूपी कमलों से रणभूमि की पूजा करके, तुम्हारा सारा सन्ताप दूर कर दूं गा । याज्ञिक लोग यज्ञों में जो हविर्भाग तुम्हें विधिपूर्वक देते हैं उसे ये मायावी राक्षस छकर अपवित्र कर डालते हैं और खा तक जाते हैं। इस दुष्कर्म का बदला बहुत जल्द इन्हें मिलेगा और तुम्हें तुम्हारा यज्ञ-भाग पहले ही की तरह प्राप्त होने लगेगा। तुम लोगों को तङ्ग करने के लिए, पुष्पक विमान पर सवार हुआ रावण, आकाश में चक्कर लगाया करता है। इस कारण उसके डर से तुम अपने अपने विमानों पर बैठे हुए बादलों में छिपते फिरते हो।

तुम अपने इस डर को गया ही समझो । अब तुम उससे मत डरो। मैं उसकी शीघ्र ही खबर लूँगा। रावण को यदि नलकूबर का यह शाप न होता कि यदि तू किसी स्त्री पर अत्याचार करेगा तो तेरे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे, तो जिन देवाङ्गनाओं को उसने अपने यहाँ कैद कर रक्खा है उन पर वह अत्याचार किये बिना न रहता। इसी शाप के डर से वहज्ञसुराङ्गनाओं के शरीर पर हाथ लगा कर उन्हें अपवित्र नहीं कर सका। जिस दिन से वे कैद हुई उस दिन से उन बेचारियों ने अपनी बेनियाँ तक
१५९
दसवाँ सर्ग।

नहीं खोली। उनके सिर के बाल वैसे ही बँधे पड़े हैं। सन्तोष की बात इतनी ही है कि रावण के स्पर्श से वे अपवित्र नहीं हुई। कुछ डर नहीं; उनके खोले जाने का समय अब आ गया समझो। सुराङ्गनायें तुम्हें शीव्र ही फिर मिल जायँगी और तुम उनके जूड़े खोल कर उनकी वियोग-व्यथा दूर कर दोगे।"

रावणरूपी अवर्षण से सूखते हुए देवतारूपी अनाज के पौधों पर, इसप्रकार का वाणीरूप जल बरसा कर, भगवानरूपी कृष्ण-मेघ अन्तर्धान हो गये। देवताओं को जब यह मालूम हो गया कि भगवान् हम लोगों का काम करने के लिए उद्यत हैं तब उन्होंने भी इस काम में भगवान की सहायता करने का निश्चय किया। अतएव, इन्द्र आदि देवता भी अपने अपने अंशों से इस तरह भगवान के पीछे पीछे गये, जिस तरह कि वृक्ष अपने फूलों से पवन के पीछे जाते हैं । देवताओं ने भी अपनी अपनी मात्राओं से हनूमान् और सुग्रीव आदि का अवतार लिया।

उधर शृङ्गी ऋषि आदि महात्माओं की कृपा से राजा दशरथ का पुत्रेष्टि-यज्ञ निर्विन समाप्त हो गया। उसके अन्त में, अग्नि कुण्ड से, ऋत्विज्ब्रा ह्मणों के अचम्भे के साथ ही, एक तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ। खीर से भरा हुआ एक सुवर्णपात्र उसके दोनों हाथों में था। खीर में आदि-पुरुष भगवान् ने प्रवेश किया था; उनका अंश उसमें था । इस कारण उसमें बेहद भारीपन आ गया था-यहाँ तक कि वह पुरुष भी उस पात्र को बड़ी कठिनता से उठा सका था। प्रजापति सम्बन्धी उस पुरुष के दिये हुए अन्न को-समुद्र से निकले हुए अमृत को इन्द्र के समान-राजा दशरथ ने ले लिया। त्रिलोकी के नाथ भगवान ने भी दशरथ से जन्म पाने की इच्छा की ! फिर भला और कौन ऐसा है जो दशरथ की बराबरी कर सके ? उसके सौभाग्य की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। उसके से गुण और किसी में नहीं पाये गये।

सूर्य जैसे अपनी प्रातःकालीन धूप, पृथ्वी और आकाश को बाँट देता है, वैसे ही दशरथ ने भी वह चरु नामक विष्णु तेज अपनी दो रानियों, कौसल्या और कैकेयी, को बाँट दिया । राजा की जेठी रानी कौसल्या थी; पर सब से अधिक प्यार वह केकयी का करता था। इससे इन्हीं दोनों को
१६०
रघुवंश ।

उसने वह खीर पहले अपने हाथ से दी। फिर उसने उनसे कहा कि अब तुम्ही अपने अपने हिस्से से थोड़ी थोड़ी खीर सुमित्रा को देने की कृपा करो। राजा की यह इच्छा थी कि सब को अपना अपना हिस्सा भी मिल जाय और कोई किसी से अप्रसन्न भी न हो । उसके मन की बात कौसल्या और कैकेयी ताड़ गई,अतएव, उन्होंने चरु के आधे आधे हिस्सों से सुमित्रा का सम्मान किया। सुमित्रा को वे दोनों स्वयं भी चाहती थीं। सुमित्रा थी भी बड़ी सुशीला। हाथी की दोनों कनपटियों से बहने वाले मद की दो धाराओं पर भारी का प्रेम जैसे तुल्य होता है वैसे ही उन दोनों रानियों पर सुमित्रा का भी प्रेम सम था। वह उन दोनों का एक साप्यार करती थी। इसी से वह उनकी भी प्यारी थी और इसी से उन्होंने सुमित्रा को अपने अपने हिस्से से प्रसन्नतापूर्वक खीर दे दी । खीर खाने से उनके, विष्णु के अंश से उत्पन्न हुआ, गर्भ रह गया । सूर्य की अमृता-नामक किरणों जिस तरह जलरूपी गर्भ धारण करती हैं उसी तरह उन्होंने भी उस गर्भ को, लोक कल्याण की इच्छा से, धारण किया ।

तीनां रानियाँ साथ ही गर्भिणी हुई । उनके शरीर की कान्ति पीली पड़ गई। वे, उस समय, अपने भीतर फलों के अंकुर धारण किये हुए अनाज के पौधों की शाखाओं के सदृश, शोभायमान हुई । उन तीनों ने रात को स्वप्न में देखा कि शङ्ख, चक्र, गदा, खड्ग और धनुष लिये हुए बौने मनुष्य उनकी रक्षा कर रहे हैं । उन्होंने यह भी देखा कि गरुड़ अपने सुनहले पंखों की प्रभा को चारों तरफ़ फैला रहा है और बड़े वेग से उड़ने के कारण बादलों

को अपने साथ खींचे लिये जा रहा है। वे उसी पर सवार हैं और आकाशमार्ग से कहीं जा रही हैं। उन्होंने यह भी स्वप्न में देखा कि लक्ष्मीजी,कमलरूपी पङ्खा हाथ में लिये हुए, और नारायण से धरोहर के तौर पर प्राप्त हुई कौस्तुभ मणि को छाती पर धारण किये हुए, उनकी सेवा कर रही हैं। उन्होंने यह भी देखा कि सात ब्रह्मर्षि आकाश-गङ्गा में स्नान करके आये हैं और वेद-पाठ करते हुए उनकी पूजा कर रहे हैं। अपनी तीनों रानियों से इस तरह स्वप्नों के समाचार सुन कर राजा दशरथ को परमानंद हुआ। वह कृतार्थ हो गया। उसने मन ही मन कहा:-"जगत्पिता भगवान् विष्णु के पिता होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा । अतएव मेरे सदृश भाग्यवान और कौन है ?"
१६१
दसवाँ सर्ग।

चन्द्रमा एक ही है । परन्तु, भिन्न भिन्न जगहों में भरे हुए निर्मल जलों में, उसके अनेकों प्रतिबिम्ब देख पड़ते हैं। इसी तरह सर्वव्यापी भगवान् भी यद्यपि एकही हैं, तथापि, उन्होंने अपनी आत्मा के अनेक विभाग करके, एक एक अंश से, राजा दशरथ की एक एक रानी की कोख में, निवास किया । निदान दस महीने राजा की प्रधान रानी के पुत्र हुआ। रात के समय दिव्य ओषधि जैसे अन्धकार को दूर करनेवाला प्रकाश उत्पन्न करती है वैसे ही सती कौसल्या ने तमोगुण का नाश करनेवाला पुत्र उत्पन्न किया । बालक बहुत ही सुन्दर हुआ। उसके अत्यन्त अभिराम शरीर को देख कर पिता ने तदनुसार उसका नाम 'राम रक्खा । इस नाम को संसार में सबसे अधिक मङ्गलजनक समझ कर सभी ने बहुत पसन्द किया। यह बालक रघु-कुल में दीपक के सदृश हुआ । उसके अनुपम तेज के सामने सौरी-घर के सारे दीपक मन्द पड़ गए । उनकी ज्योति क्षीण हो गई। प्रसूति के अनन्तर रामचन्द्र की माता के शरीर की गुरुता घट गई। वह दुबली हो गई। सेज पर सोते हुए राम से वह ऐसी शोभायमान हुई जैसी कि तट पर पड़े हुए पूजा के कमल-फूलों के उपहार से शरद् ऋतु की पतली पतली गङ्गा शोभायमान होती है।

कैकेयी से भरत नामक बड़ा ही शीलवान पुत्र उत्पन्न हुआ । विनय ( नम्रभाव ) से जैसे लक्ष्मी (धनसम्पन्नता ) की शोभा बढ़ जाती है वैसे ही इस नव-जात पुत्र से कैकेयी की शोभा बढ़ गई। जो विशेषता विनय से लक्ष्मी में आ जाती है वही विशेषता भरत के जन्म से कैकेयी में भी आ गई।

अच्छी तरह अभ्यास की गई विद्या से जैसे प्रबोध और विनय, इन दो, गुणों की उत्पत्ति होती है वैसे ही सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न नाम के दो जोड़िये पुत्रों की उत्पत्ति हुई।

भगवान् के जन्म ने सारे संसार को मङ्गलमय कर दिया । दुर्भिक्ष और अकाल-मृत्यु आदि आपदायें न मालूम कहाँ चली गई। सम्पदाओं का सर्वत्र राज्य हो गया । पृथ्वी पर आये हुए भगवान् पुरुषोत्तम के पीछे वर्ग भी पृथ्वी पर उतर सा आया। रावण के भय से दिशाओं के स्वामी, दिक्पाल, काँपते थे । जब स्वामियों ही की यह दशा थी तब दिशाओं की
१६२
रघुवंश ।

क्या कहना ? वे बेचारी तो और भी अधिक भयभीत थीं। अतएव जब उन्होंने सुना कि रावण के मारने के लिए परमपुरुष परमेश्वर ने अपनी आत्मा को, राम, लक्ष्मण आदि चार मूत्तियों में विभक्त करके, अवतार लिया है तब उनके आनन्द का पारावार न रहा । बिना धूल की स्वच्छ वायु के बहाने उन्होंने ज़ोर से साँस ली। उन्होंने मन में कहा:-"आह ! इतने दिनों बाद हमारी आपदाओं के दूर होने का समय आया ।” सूर्य और अग्नि भी उस राक्षस के अन्याय और अत्याचार से पीड़ित थे । अतएव,सूर्य ने विमल और अग्नि ने निधूम होकर मानो यह सूचित किया कि रामावतार ने हमारे भी हृदय की व्यथा कम कर दी-हम भी अब अपने को सुखी हुआ ही सा समझते हैं।

उस समय एक बात यह भी हुई कि राक्षसों की सौभाग्य-लक्ष्मी के अश्र-बिन्दु, रावण के किरीट की मणियों के बहाने, पृथ्वी पर टपाटप गिरे। रावण के किरीट की मणियाँ क्या गिरौं, राक्षसों की सौभाग्य-लक्ष्मी ने आँसू गिरा कर भावी दुर्गति की सूचना सी दी । इस अशकुन ने मानों यह भविष्यवाणी की कि अब राक्षसों के बुरे दिन आ गये ।

राजा दशरथ के पुत्र का जन्म होते ही आकाश में देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजा कर आनन्द मनाया। जन्मोत्सव का आरम्भ उन्हों ने किया। पहले देव-दुन्दुभियाँ बजी, पीछे दशरथ के यहाँ तुरहियाँ और नगाड़े आदि । इसी तरह मङ्गल-सूचक उपचारों का प्रारम्भ भी देवताओं ही ने किया। पहले उन्हों ने दशरथ के महलों पर कल्पवृक्ष के फूल बरसाये। तदनन्तर, कुल की रीति के अनुसार, राजा के यहाँ कलश, बन्दनवार और कदली-स्तम्भ आदि माङ्गलिक वस्तुओं के स्थापन, बन्धन और आरोपण आदि की क्रियायें हुई।

रामादि का जन्म न हुआ था तभी दशरथ के हृदय में तत्सम्बन्धी

आनन्द उत्पन्न हो गया था। इस हिसाब से दशरथ का हृदयानन्द रामलक्ष्मण आदि से जेठा हुआ । जात-कर्म आदि संस्कार हो चुकने पर, धाय का दूध पीनेवाले राजकुमार, उम्र में अपने से जेठे, पिता के उस आनन्द के साथ ही साथ, बढ़ने लगे। वे चारों स्वभाव ही से बड़े नम्र थे। शिक्षा से उनका नम्रभाव-घी, समिधा आदि डालने से अग्नि के स्वाभा
१६३
दसवाँ सर्ग।

विक तेज की तरह-और भी बढ़ गया। उनमें परस्पर कभी लड़ाई झगड़ा न हुआ। एक ने दूसरे का कभी विरोध न किया। उनकी बदौलत रघु का निष्कलङ्क कुल-ऋतुओं की बदौलत नन्दन-वन की तरह बहुत ही शोभनीय हो गया।

चारों भाइयों में भ्रातृभाव यद्यपि एक सा था-भ्रातृस्नेह यद्यपि किसी में किसी से कम न था-तथापि जैसे राम और लक्ष्मण ने वैसे ही भरत और शत्रुघ्न ने भी प्रीतिपूर्वक अपनी अपनी जोड़ी अलग बना ली। अग्नि और पवन, तथा चन्द्रमा और समुद्र, की जोड़ी के समान इन दोनों जोडियों की प्रीति में कभी भेद-भाव न हुआ । उनकी अखण्ड प्रीति कभी एक पल के लिए भी नहीं टूटी। प्रजा के उन चारों पतियों ने-ग्रीष्मऋतु के अन्त में काले बादलोंवाले दिनों की तरह अपने तेज और नम्रभाव से प्रजा का मन हर लिया। उनकी तेजस्विता और नम्रता देख कर प्रजा के आनन्द की सीमा न रही। वह उन पर बहुत ही प्रसन्न हुई। चार रूपों में बँटी हुई राजा दशरथ की वह सन्तति-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मूर्त्तिमान् अवतार की तरह-बहुत ही भली मालुम हुई। समुद्रपर्यन्त फैली हुई चारों दिशाओं की पृथ्वी का पति समझ कर, चारों महासागरों ने, नाना प्रकार के रत्न देकर, जैसे दशरथ को प्रसन्न किया था वैसे ही पिता के प्यारे उन चारों राजकुमारों ने भी अपने गुणों से उसे प्रसन्न कर दिया।

राजाओं के राजा महाराज दशरथ के भाग्य की कहाँ तक प्रशंसा की जाय । भगवान् के अंश से उत्पन्न हुए अपने चारों राजकुमारों से उसकी ऐसी शोभा हुई जैसी कि दैत्यों के खड्गों की धारें तोड़नेवाले अपने चारों दाँतों से ऐरावत हाथी की, अथवा रथ के जुये के समान लम्बे लम्बे चार बाहुओं से विष्णु की,अथवा फल-सिद्धि से अनुमान किये गये साम,दान आदि चारों उपायों से नीति-शास्त्र की।