भ्रमरगीत-सार/८७-बहुरो ब्रज वह बात न चाली
बहुरो ब्रज वह बात न चाली।
वह जो एक बार ऊधो-कर कमलनयन पाती दै घाली॥
पथिक! तिहारे पा लागति हौं मथुरा जाव जहाँ बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै 'कालिंदी फिरि आयो काली[१]'॥
जबै कृपा जदुनाथ कि हमपै रही सुरुचि जो प्रीति प्रतिपाली।
माँगत कुसुम देखि द्रुम ऊँचे, गोद पकरि लेते गहि डाली॥
हम ऐसी उनके केतिक हैं अंग-प्रसंग सुनहु री, आली!
सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरि सुमिरि राधा-उर साली॥८७॥
- ↑ काली=काली नाग।