भ्रमरगीत-सार/८७-बहुरो ब्रज वह बात न चाली

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२० से – १२१ तक

 

राग कान्हरो
बहुरो ब्रज वह बात न चाली।

वह जो एक बार ऊधो-कर कमलनयन पाती दै घाली॥
पथिक! तिहारे पा लागति हौं मथुरा जाव जहाँ बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै 'कालिंदी फिरि आयो काली[]'॥

जबै कृपा जदुनाथ कि हमपै रही सुरुचि जो प्रीति प्रतिपाली।
माँगत कुसुम देखि द्रुम ऊँचे, गोद पकरि लेते गहि डाली॥
हम ऐसी उनके केतिक हैं अंग-प्रसंग सुनहु री, आली!
सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरि सुमिरि राधा-उर साली॥८७॥

  1. काली=काली नाग।