भ्रमरगीत-सार/८६-सँदेसो कैसे कै अब कहौं
सँदेसो कैसे कै अब कहौं?
इन नैनन्ह या तन को पहरो कब लौं देति रहौं?
जो कछु बिचार होय उर-अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत, ऊधो-तन चितवत न सो बिचार, न हौं[१]॥
अब सोई सिख देहु, सयानी! जाते सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों विनती कै निबहौं॥८६॥
- ↑ न सो...न हौं=न वह विचार रह जाता
है और न मैं, अर्थात् सब सुधबुध भूल जाती है।