भ्रमरगीत-सार/८५-बिन गोपाल बैरिन भइँ कुंजैं

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२०

 

राग सारंग
बिन गोपाल बैरिन भइँ कुंजैं।

तब ये लता-लगति अति सीतल, अब भइँ विषम ज्वाल की पुंजैं॥
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार सँजीवनि दधिसुत[] किरन भानु भइँ भुंजैं[]
ए, ऊधो, कहियो माधव सों बिरह कदन[] करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत अँखियाँ भईं बरन[] ज्यों गुंजैं॥८५॥

  1. दधिसुत=उदधिसुत, चंद्रमा।
  2. भुंजैं=भूनती हैं।
  3. कदन=छुरी।
  4. बरन=वर्ण, रंग।