बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११९
निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय? कपट करि करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय[१]॥ काल-मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय। मेरे जिय की सोइ जानै जाहि बीती होय॥ सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय[२]। सूर गोपी मधुप आगे दरकि[३] दीन्हों रोय॥८४॥