भ्रमरगीत-सार/८४-निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११९

 

राग सोरठ

निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय?
कपट करि करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय[]
काल-मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय।
मेरे जिय की सोइ जानै जाहि बीती होय॥
सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय[]
सूर गोपी मधुप आगे दरकि[] दीन्हों रोय॥८४॥

  1. गोय लै गयो=चुरा ले गया।
  2. सोच, आँखि मजीठ...काँची पोय=आँखें भी मजीठ की तरह लाल (धूएँ आदि से) की, कच्चा पकाया भी। काँची पोय=कच्ची रोटी बनाकर अर्थात् प्रेम का कच्चा व्यवहार करके।
  3. दरकि=फूट फूटकर।