भ्रमरगीत-सार/८२-मोहन माँग्यो अपनो रूप

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११८ से – ११९ तक

 

राग नट
मोहन माँग्यो अपनो रूप।

या ब्रज बसत अँचै तुम बैठी, ता बिनु तहाँ निरूप[]
मेरो मन, मेरो, अलि! लोचन लै जो गए धुपधूप[]

हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप॥
अपनो काज सँवारि सूर, सुनु, हमहिं बताव त कूप।
लेवा-देइ बराबर में है, कौन रंक को भूप ॥८२॥

  1. मोहन......निरूप=सखी राधिका से कहती है कि तुम मोहन का रूप अँचै (पी) गई हो अर्थात् अपने ध्यान में ले बैठी हो जिससे वे बेचारे वहाँ निराकार हो गए हैं। इससे उद्धव को वही रूप माँगने के लिए उन्होंने भेजा है। उद्धव के बार बार निराकार की चर्चा करने पर यह उक्ति है।
  2. धुपधूप=दगदगा, धुला हुआ, साफ, चोखा।