बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ८८
मन क्रम बच मैं तुम्हैं पठावत ब्रज को तुरत पलानो[१]॥ पूरन ब्रह्म, सकल, अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता। रेख, न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता॥ यह मत दै गोपिन कहँ आवहु विरह-नदी में भासति[२]। सूर तुरत यह जाय कहौ तुम ब्रह्म बिना नहिं आसति[३]॥७॥