भ्रमरगीत-सार/६१-रहु रे, मधुकर! मधुमतवारे

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १११ से – ११२ तक

 

राग धनाश्री
रहु रे, मधुकर! मधुमतवारे।

कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे॥
लोटत नीच परागपंक में पचत, न आपु सम्हारे।
बारम्बार सरक[] मदिरा की अपरस[] कहा उघारे॥

तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे॥
सुन्दरस्याम कमलदल-लोचन जसुमति-नँद-दुलारे।
सूर स्याम को सर्बस अर्प्यो अब कापै हम लेहिं उधारे[]॥६१॥

  1. सरक=मद्यपात्र।
  2. अपरस=विरस, रसहीन
  3. उधारे = उधार में, उधार, कर्ज़।