बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ११२
सुनहु, मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूँधो[१]? कै तुम सिखै पठाए कुब्जा, कै कहीं स्यामघन जू धौं। बेद पुरान सुमृति सब ढ़ूँढ़ौ जुवतिन जोग कहूँ धौं? ताको कहा परेखो[२] कीजै जानत छाछ न दूधो। सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेरत[३] ऊधो॥६२॥