भ्रमरगीत-सार/६०-अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १११

 

अपनी सी[] कठिन करत मन निसिदिन।

कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन॥
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियाँ कछु और चलावत।
बहुत भाँति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत॥
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप-समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका के खग ज्यों फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत॥
जे बासना न बिदरत अंतर[] तेइ तेइ अधिक अनूअर[] दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यो है चाहत॥६०॥

  1. अपनी सी=अपने भरसक।
  2. जे बासना...अन्तर=जिस वासना के कारण हृदय नहीं फटता है।
  3. अनूअर=अनुत्तर, लगातार।