भ्रमरगीत-सार/३७८-मो पै काहे को झुकति ब्रजनारी

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २२२ से – २२३ तक

 

कुब्जा-संदेश
राग सोरठ

मो पै काहे को झुकति[] ब्रजनारी?
काहू के भाग मों साझो नाहिंन, हरि की कृपा नियारी॥
फलन माँझ जैसे करुई तूमरि रहति जो घूरे डारी।
हाथ परी जब गुनी जनन के बाजति राग दुलारी॥

यह सँदेस कुब्जा कहि पठयो अरु कीन्ही मनुहारी।
तन टेढ़ी सब कोऊ जानत, परसे भइ अधिकारी॥
हौं तौ दासी कंसराय की, देखहु हृदय बिचारी।
सूर स्याम करुनाकर स्वामी अपने हाथ सँवारी॥३७८॥

  1. झुकति=टूटती हो, कोप करती हो।