भ्रमरगीत-सार/३६१-कै तुम सों छूटैं लरि ऊधो कै रहिए गहि मौन

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २१६

 

राग सोरठ

कै तुम सों छूटैं लरि ऊधो कै रहिए गहि मौन।
एक हम जरैं जरे पर जारत, बोलहु कुबची[] कौन?
एक अंग मिले दोऊ कारे, काको मन पतियाए?
तुम सी होय सो तुम सों बोलै, लीने जोगहि आए॥
जा काहू कों जोग चाहिए सो लै भस्म लगावै।
जिन्ह उर ध्यान नंदनंदन को तिन्ह क्यों निर्गुन भावै?
कहौ सँदेस सूर के प्रभु को, यह निर्गुन अँधियारो।
अपनो बोयो आप लूनिए, तुम आपुहि निरवारो[]॥३६१॥

  1. कुबची=बुरी बात कहनेवाला।
  2. निरवारो=सुलझाओ (अपने निर्गुण की उलझन को)।