भ्रमरगीत-सार/३६०-गोपालहि लै आवहू मनाय

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २१५

 

राग मलार

गोपालहि लै आवहू मनाय।
अब की बेर कैसेहु करि, ऊधो! करि छल बल गहि पाय॥
दीजौ उनहिं सुसारि उरहनो संधि संधि समुझाय।
जिनहिं छाँड़ि बढ़िया[] महँ आए ते विकल भए जदुराय॥
तुम सों कहा कहौं हो मधुकर! बातैं बहुत बनाय।
बहियाँ पकरि सूर के प्रभु की, नंद की सौंह दिवाय॥३६०॥

  1. बढ़िया=बाढ़, विरह-प्रवाह की।