तुम्हारी प्रीति, ऊधो! पूरब जनम की अब तो भए मेरे तनहु के गरजी।
बहुत दिनन तें बिरमि रहे हौ, संग तें बिछोहि हमहिं गए बरजी॥
जा दिन तें तुम प्रीति करी[१] ही घटति न, बढ़ति तूल[२] लेहु नरजी[३]।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु तन भयो ब्योंत, बिरह भयो दरजी॥३५९॥