यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
१४०
राग सारंग
कहा भयो हरि मथुरा गए।
अब अलि! हरि कैसे सुख पावत तन द्वै भाँति भए[१]॥
यहाँ अटक अति प्रेम पुरातन, ह्वाँ अति नेह नए।
ह्वाँ सुनियत नृप-वेष, यहाँ दिन[२] देखियत बेनु लए॥
कहा हाथ पर्यो सठ अक्रूरहिं वह ठग-ठाट ठए।
अब क्यों कान्ह रहत गोकुल बिनु जोगन के सिखए॥
राजा राज करौ अपने घर माथे छत्र दए।
चिरंजीव रहौ, सूर नंदसुत, जीजत मुख चितए॥३५८॥
राग बिलावल
राग मलार
गोपालहि लै आवहू मनाय।
अब की बेर कैसेहु करि, ऊधो! करि छल बल गहि पाय॥
दीजौ उनहिं सुसारि उरहनो संधि संधि समुझाय।
जिनहिं छाँड़ि बढ़िया[६] महँ आए ते विकल भए जदुराय॥
तुम सों कहा कहौं हो मधुकर! बातैं बहुत बनाय।
बहियाँ पकरि सूर के प्रभु की, नंद की सौंह दिवाय॥३६०॥