कहाँ रह्यो, माई! नंद को मोहन।
वह मूरति जिय तें नहिं बिसरति गयो सकल-जग-सोहन॥
कान्ह बिना गेसुत को चारै, को ल्यावै भरि दोहन?
माखन खात संग ग्वालन के, और सखा सब गोहन[१]॥
ज्यों-ज्यों सुरति करति हौं, सखि री! त्यों त्यों अधिक मनमोहन।
सूरदास स्वामी के बिछुरे क्यों जीबहिं इन छोहन[२]॥३२०॥