भ्रमरगीत-सार/३२१-परम चतुर सुन्दर सुख सागर तन को प्रिय प्रतिहार

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०४

 

परम चतुर सुन्दर सुख सागर तन को प्रिय प्रतिहार[]
रूप-लकुट[]रोके रहतो, सखि! अनुदिन नंदकुमार॥
अब ता बिनु उर-भवन भयो है सिव-रिपु[] को संचार।
दुख आवत मन, हटक[] न मानत, सूनो देखि अगार॥
असु[]स-उसास[]जात अँतर तें करत न सकुच बिचार॥
निसा निमेष-कपाट[] लगे बिनु ससि सत सत सर मार॥
यह गति मेरी भई है हरि बिनु नाहिं कछू परिहार।
सूरदास प्रभु बेगि मिलहु तुम नागर नँदकुमार॥३२१॥

  1. प्रतिहार=पहरेदार, द्वारपाल।
  2. रूप-लकुट=अपने सुंदर रूप की लाठी से।
  3. सिव-रिपु=काम।
  4. हटक=निषेध, मना करना।
  5. असु=प्राण।
  6. स-उसास=साँस के साथ।
  7. निमेष-कपाट=पलक रूपी किवाड़।