भ्रमरगीत-सार/३२१-परम चतुर सुन्दर सुख सागर तन को प्रिय प्रतिहार
परम चतुर सुन्दर सुख सागर तन को प्रिय प्रतिहार[१]।
रूप-लकुट[२]रोके रहतो, सखि! अनुदिन नंदकुमार॥
अब ता बिनु उर-भवन भयो है सिव-रिपु[३] को संचार।
दुख आवत मन, हटक[४] न मानत, सूनो देखि अगार॥
असु[५]स-उसास[६]जात अँतर तें करत न सकुच बिचार॥
निसा निमेष-कपाट[७] लगे बिनु ससि सत सत सर मार॥
यह गति मेरी भई है हरि बिनु नाहिं कछू परिहार।
सूरदास प्रभु बेगि मिलहु तुम नागर नँदकुमार॥३२१॥