भ्रमरगीत-सार/३१८-सबन अबध सुंदरी बधै जन

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०३

 

राग अड़ानो

सबन अबध[], सुंदरी बधै जनि।
मुक्तामाल, अनंग! गंग नहिं, नवसत[] साजे अर्थ-स्यामघन॥
भाल तिलक उडुपति न होय यह, कबरि-ग्रँथि अहिपति न सहस-फन।
नहिं बिभूति दधिसुत न भाल जड़! यह मृगमद चंदन-चर्चित तन॥
न गजचर्म यह असित कँचुकी, देखि बिचारि कहाँ नंदीगन।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बरबस काम करत हठ हम सन[]॥३१८॥

  1. अबध=अबध्य।
  2. नवसत=सोलह शृंगार।
  3. इसी भाव का संस्कृत श्लोक है।