भ्रमरगीत-सार/३१७-आछे कमल कोस-रस लोभी द्वै अलि सोच करे

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०२ से – २०३ तक

 

आछे कमल कोस-रस लोभी द्वै अलि[] सोच करे।
कनक बेलि औ नवदल के ढिग बसते उझकि[] परे॥
कबहुँक पच्छ सकोचि मौन ह्वै अंबुप्रवाह झरे।
कबहुँक कंपित चकित निपट ह्वै लोलुपता बिसरे॥
बिधु-मंडल[] के बीच बिराजत अंमृत अंग भरे ।
एतेउ जतन बचत नहिं तलफत बिनु मुख सुर उचरे॥

कीर, कमठ, कोकिला उरग-कुल[] देखत ध्यान धरे।
आपुन क्यों न पधारौ सूर प्रभु, देखे कह बिगरे॥३१७॥

  1. अलि=भौंरे अर्थात् नेत्र की पुतलियाँ।
  2. उझकि परे=उचटकर चले गए।
  3. बिधु-मंडल=चंद्रमंडल अर्थात् मुख।
  4. उरग-कुल=सर्पसमूह अर्थात् केश।