भ्रमरगीत-सार/३१६-निसिदिन बरसत नैन हमारे
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब तें स्याम सिधारे॥
दृग अंजन लागत नहिं कबहूँ, उर-कपोल भए कारे।
कंचुकि नहिं सूखत सुनु सजनी! उर-बिच बहत पनारे॥
सूरदास प्रभु अंबु बढ्यो है, गोकुल लेहु उबारे।
कहँ लौं कहौं स्यामघन सुन्दर बिकल होत अति भारे॥३१६॥