भ्रमरगीत-सार/३००-जौ तू नेक हू उड़ि जाहि
जौ तू नेक हू उड़ि जाहि।
बिबिध बचन सुनाय बानी यहाँ रिझवत काहि॥
पतित[१] मुख पिक परुष पसु लौं कहा इतो रिसाहि।
नाहिंनै कोउ सुनत समुझत, बिकल बिरहिनि थाहि॥
राखि लेबी अवधि लौं तनु, मदन! मुख जनि खाहि।
तहूँ तौ तन-दगध देख़्यो, बहुरि का समुझाहि॥
नन्दनन्दन को बिरह अति कहत बनत न ताहि।
सूर प्रभु ब्रजनाथ बिनु लै मौन[२] मोहि बिसाहि॥३००॥