राग मलार
देखौ माई! नयनन्ह सों घन हारे।
बिन ही ऋतु बरसत निसिबासर सदा सजल दोउ तारे॥
ऊरध स्वास समीर तेज अति दुख अनेक द्रुम डारे।
बदन सदन करि बसे बचन-खग[१] ऋतु पावस के मारे॥
ढरि ढरि बूँद परत कंचुकि पर मिलि अंजन सों कारे।
मानहुं सिव की पर्नकुटी बिच धारा स्याम निनारे[२]॥
सुमिरि सुमिरी गरजत निसिबासर अस्रु-सलिल के धारे।
बूड़त ब्रजहि सूर को राखै बिनु गिरिवरधर प्यारे॥२९९॥