भ्रमरगीत-सार/२९-पूरनता इन नयन न पूरी

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १००

 

राग कान्हरो
पूरनता इन नयन न पूरी।

तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये याही दुख मरति बिसूरी[]
हरि अंतर्यामी सब जानत बुद्धि बिचारत बचन समूरी[]
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी[]
रहु रे कुटिल, चपल, मधुलंपट, कितव[] सँदेस कहत कटु कूरी[]
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती! कैसे जात कुलिस करि चूरी।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर सीतल सुभग स्वाद रुचि रूरी[]
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित लागत सब झूरी[]॥२९॥

  1. बिसूरी=बिलखकर।
  2. समूरी=जल मूल से।
  3. धूरी=धूल।
  4. कितव=धूर्त, छली।
  5. कूरी=क्रूर, निष्ठुर।
  6. रूरी=अच्छी।
  7. झूरी=नीरस।