भ्रमरगीत-सार/२९-पूरनता इन नयन न पूरी
पूरनता इन नयन न पूरी।
तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये याही दुख मरति बिसूरी[१]।
हरि अंतर्यामी सब जानत बुद्धि बिचारत बचन समूरी[२]।
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी[३]।
रहु रे कुटिल, चपल, मधुलंपट, कितव[४] सँदेस कहत कटु कूरी[५]।
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती! कैसे जात कुलिस करि चूरी।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर सीतल सुभग स्वाद रुचि रूरी[६]।
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित लागत सब झूरी[७]॥२९॥