भ्रमरगीत-सार/२८-हम तो दुहूं भाँति फल पायो

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ९९ से – १०० तक

 

राग धनाश्री
हम तो दुहूं भाँति फल पायो।

जो ब्रजनाथ मिलैं तो नीको, नातरु जग जस गायो॥
कहँ वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ वै कमला के स्वामी सँग मिलि बैठीं इक पाँती॥

निगमध्यान मुनिज्ञान अगोचर, ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहो धौं मुक्ति कौन की दासी?
जोग-कथा, पा लागों[] उधो, ना कहु बारंबार।
सूर स्याम तजि और भजै जो तानी जननी छार[]॥२८॥

  1. पा लागों=पैर पड़ती हूँ।
  2. छार=भस्म, राख, मिट्टी।