भ्रमरगीत-सार/२९८-ए सखि आजु की रैनि को दुख कह्यो न कछु मोपै परै

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९४

 

ए सखि! आजु की रैनि को दुख कह्यो न कछु मोपै परै।
मन राखन[] को बेनु लियो कर, मृग थाके उडुपति न चरै[]
वाही प्राननाथ प्यारे बिनु सिव-रिपु[]-बान नूतन जो जरै।
अति अकुलाय बिरहिनी ब्याकुल भूमि-डसन-रिपु भख न करै॥
अति आतुर ह्वै सिंह लिख्यो कर जेहि भामिनी को करुन टरै।
सूरदास ससि को रथ चलि गयो, पाछे; तें रबि उदय करै॥२९८॥

  1. मन राखन को=मन बहलाने के लिए।
  2. चरै=चलता है।
  3. सिव-रिपु=कामदेव।