भ्रमरगीत-सार/२९७-हर को तिलक हरि चित को दहत

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १९४

 

राग केदारो

हर को तिलक[], हरि! चित को दहत।
कहियत है उडुराज अमृतमय, तजि सुभाव मोकों बन्हि बहत॥
छपा न छीन होय, मेरी सजनी! भूमि-डसन-रिपु[] काधौं बसत।
ससि नहिं गमन करै पच्छिम दिसि, राहु ग्रसत गहि, मोकों न गहत[]
ऐसोइ ध्यान धरत तुम, दधिसुत! मुनि महेस जैसी रहनि रहत[]
सूरदास प्रभु मोहन मूरति चितै जाति पै चित न सहत[]॥२९७॥

  1. हर को तिलक=शिव का शिरोभूषण चन्द्र।
  2. भूमि-डसन-रिपु=साँप।
  3. राहु......गहत=इसको राह पकड़ लेता जिसमें यह हमें न ग्रसता या कष्ट देता।
  4. मुनि महेस...रहत=अर्थात् अचल आसन मारकर, ध्यान लगाकर।
  5. चितै जाति...सहत=ध्यान में उनकी मूर्ति देखती हूँ, पर ब्याकुलता से देखा नहीं जाता।