भ्रमरगीत-सार/२९७-हर को तिलक हरि चित को दहत
राग केदारो
हर को तिलक[१], हरि! चित को दहत।
कहियत है उडुराज अमृतमय, तजि सुभाव मोकों बन्हि बहत॥
छपा न छीन होय, मेरी सजनी! भूमि-डसन-रिपु[२] काधौं बसत।
ससि नहिं गमन करै पच्छिम दिसि, राहु ग्रसत गहि, मोकों न गहत[३]॥
ऐसोइ ध्यान धरत तुम, दधिसुत! मुनि महेस जैसी रहनि रहत[४]।
सूरदास प्रभु मोहन मूरति चितै जाति पै चित न सहत[५]॥२९७॥