तुम्हरे बिरह ब्रजनाथ अहो प्रिय! नयनन नदी बढ़ी।
लीने जात निमेष-कूल दोउ एते मान चढ़ी॥
गोलक नव-नौका न सकत चलि, स्यो[१] सरकनि[२] बढ़ि बोरति।
ऊरध स्वासु-समीर तरंगन तेज तिलक-तरु तोरति[३]॥
कज्जल कीच कुचील[४] किए तट अंतर अधर कपोल।
रहे पथिक जो जहाँ सो तहाँ थकि हस्त[५] चरन मुख-बोल॥
नाहिंन और उपाय रमापति बिन दरसन छन जीजै।
अस्रु-सलिल बूड़त सब गोकुल सूर सुकर गहि लीजै॥२८८॥