बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७३
मधुकर! जानत है सब कोऊ।
जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निपुन हौ दौऊ॥
पाके चोर, हृदय के कपटी, तुम कारे औ वोऊ।
सरबसु हरत, करत अपनो सुख, कैसेहू किन होऊ॥
परम कृपन थोरे धन जीवन उबरत नाहिंन सोऊ।
सूर सनेह करै जो तुमसों सो करै आप-बिगोऊ[१]॥२४५॥