भ्रमरगीत-सार/२४४-ऊधो हरिजू हित जनाय चित चोराय लयो
ऊधो! हरिजू हित जनाय चित चोराय लयो।
ऊधो! चपल नयन चलाय अंगराग दयो॥
परम साधु सखा सुजन जदुकुल के मानि।
कहौ बात प्रात एक साँची जिय जानि॥
सरद-बारिज सरिस दृग भौंह काम-कमान।
क्यों जीवहिं बेधे उर लगे बिषम बान?
मोहन मथुरा पै बसैं, ब्रज पठयो जोगसँदेस।
क्यों न काँपी मेदिनी कहत जुवतिन ऊपदेस?
तुम सयाने स्याम के देखहु जिय बिचारि।
प्रीतम पति नृपति भए औ गहे वर नारि॥
कोमल कर मधुर मुरलि अधर धरे तान।
पसरि सुधा पूरि रही कहा सुनै कान?
मृगी मृगज[१]-लोचनी भए उभय एक प्रकार।
नाद नयनबिष-तते[२] न जान्यो मारनहार॥
गोधन तजि गवन कियो लियो बिरद गोपाल।
नीके कै कहिबी[३], यह भली निगम-चाल॥२४४॥