भ्रमरगीत-सार/२२१-ऊधो कुलिस भई यह छाती

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६५

 

राग मलार
ऊधो! कुलिस भई यह छाती।

मेरो मन रसिक लग्यो नँदलालहि, झखत रहत दिनराती॥
तजि ब्रजलोक, पिता अरु जननी, कंठ लाय गए काती।
ऐसे निठुर भए हरि हमको कबहुँ न पठई पाती॥
पिय पिय कहत रहत जिय मेरो ह्वै चातक की जाती।
सूरदास प्रभु प्रानहिं राखहु ह्वै कै बूँद-सवाती॥२२१॥