भ्रमरगीत-सार/२१०-ऊधो मन नाहीं दस बीस

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६१

 

राग धनाश्री
ऊधो! मन नाहीं दस बीस।

एक हुतो सो गयो हरि के सँग, को अराध तुव ईस?
भइँ अति सिथिल सबै माधव बिनु जथा देह बिन सीस।
स्वासा अटकि रहे आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुंदर के सकल जोग के ईस।
सूरदास रसिक की बतियाँ पुरवौ मन जगदीस॥२१०॥