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भ्रमरगीत-सार
८२
ता दिन तें हरिदरस परस बिनु और न कछू सुहाई॥
क्रीड़त हँसत कृपा अवलोकत, जुग छन भरि तब जात।
परम तृप्त सबहिन तन होती, लोचन हृदय अघात॥
जागत, सोवत, स्वप्न स्यामघन सुंदर तन अति भावै।
सूरदास अब कमलनयन बिनु बातन हो बहरावै॥२०९॥
ऊधो! मन नाहीं दस बीस।
एक हुतो सो गयो हरि के सँग, को अराध तुव ईस?
भइँ अति सिथिल सबै माधव बिनु जथा देह बिन सीस।
स्वासा अटकि रहे आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुंदर के सकल जोग के ईस।
सूरदास रसिक की बतियाँ पुरवौ मन जगदीस॥२१०॥
ऊधो! तुम सब साथी भोरे।
ऊधो! समुझावै सो बैरनि।
रे मधुकर! निसिदिन मरियतु है कान्ह कुँवर-औसेरनि[३]॥