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भ्रमरगीत-सार
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ता दिन तें हरिदरस परस बिनु और न कछू सुहाई॥
क्रीड़त हँसत कृपा अवलोकत, जुग छन भरि तब जात।
परम तृप्त सबहिन तन होती, लोचन हृदय अघात॥
जागत, सोवत, स्वप्न स्यामघन सुंदर तन अति भावै।
सूरदास अब कमलनयन बिनु बातन हो बहरावै॥२०९॥


राग धनाश्री
ऊधो! मन नाहीं दस बीस।

एक हुतो सो गयो हरि के सँग, को अराध तुव ईस?
भइँ अति सिथिल सबै माधव बिनु जथा देह बिन सीस।
स्वासा अटकि रहे आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुंदर के सकल जोग के ईस।
सूरदास रसिक की बतियाँ पुरवौ मन जगदीस॥२१०॥


राग मलार
ऊधो! तुम सब साथी भोरे।

मेरे कहे बिलग मानौगे, कोटि कुटिल लै जोरे॥
वै अक्रूर क्रूर कृत तिनके, रीते भरे, भरे गहि ढोरे[]
वै घनस्याम, स्याम अंतरमन, स्याम काम महँ बोरे॥
ये मधुकर दुति निर्गुन गुनते, देखे फटकि पछोरे।
सूरदास कारन संगति के कहा पूजियत[] गोरे?॥२११॥


राग सोरठ
ऊधो! समुझावै सो बैरनि।

रे मधुकर! निसिदिन मरियतु है कान्ह कुँवर-औसेरनि[]


  1. ढोरे=ढाले, ढरकाए।
  2. पूजियत=पूरे पड़ते हैं, पहुँचते हैं।
  3. औसेर=बाधा या दुःख।