भ्रमरगीत-सार/२०९-ऊधो यहै प्रकृति परि आई तेरे

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६० से – १६१ तक

 

राग देसाख
ऊधो! यहै प्रकृति परि आई तेरे।

जो कोउ कोटि करै कैसे हूँ फिरत नहीं मन फेरे॥
जा दिन तें जसुदागृह आए मोहन जादवराई।

ता दिन तें हरिदरस परस बिनु और न कछू सुहाई॥
क्रीड़त हँसत कृपा अवलोकत, जुग छन भरि तब जात।
परम तृप्त सबहिन तन होती, लोचन हृदय अघात॥
जागत, सोवत, स्वप्न स्यामघन सुंदर तन अति भावै।
सूरदास अब कमलनयन बिनु बातन हो बहरावै॥२०९॥