दिन नहिं चैन, रैन नहिं सोवत, पावक भई जुन्हैया सरद॥
जब ते अक्रूर लै गए मधुपुरी, भई बिरह तन बाय[१] छरद[२]।
कीन्हीं प्रबल जगी अति, ऊधो! सोचन भइ जस पीरी हरद[३]।
सखा प्रवीन निरंतर हौ तुम ताते कहियत खोलि परद[४]।
काथ रूप दरसन बिन हरि के सूर मूरि नहिं हियो सुरद[५]॥२०७॥