बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५७
आवत, जात, उलटि फिरि बैठत जीवन-अवधि गहे॥
जब हे दाम उखल सों बाँधे बदन नवाय रहे।
चुभि जु रही नवनीत-चोर-छवि, क्यों भूलति सो ज्ञान गहे?
तिनसों ऐसी क्यों कहि आवै जे कुल-पति की त्रास महे[१]?
सूर स्याम गुन-रसनिधि तजिकै को घटनीर बहे?॥१९८॥