भ्रमरगीत-सार/१९८-ऊधो जो हरि आवैं तो प्रान रहैं

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५७

 

ऊधो! जो हरि आवैं तो प्रान रहैं।

आवत, जात, उलटि फिरि बैठत जीवन-अवधि गहे॥
जब हे दाम उखल सों बाँधे बदन नवाय रहे।
चुभि जु रही नवनीत-चोर-छवि, क्यों भूलति सो ज्ञान गहे?
तिनसों ऐसी क्यों कहि आवै जे कुल-पति की त्रास महे[]?
सूर स्याम गुन-रसनिधि तजिकै को घटनीर बहे?॥१९८॥

  1. महे=मथ डाला, नष्ट किया।