भ्रमरगीत-सार/१९९-ऊधो यह निस्चय हम जानी
खोयो गयो नेहनग उनपै, प्रीति-कोठरी भई पुरानी॥
पहिले अधरसुधा करि सींची, दियो पोष बहु लाड़ लड़ानी।
बहुरै खेल कियो केसव सिसु-गृहरचना ज्यों चलत बुझानी॥
ऐसे ही परतीति दिखाई पन्नग केंचुरि ज्यों लपटानी।
बहुरौ सुरति लई नहिं जैसे भँवर लता त्यागत कुम्हिलानी॥
बहुरंगी जहँ जाय तहाँ सुख, एकरंग दुख देह दहानी[१]।
सूरदास पसु धनी चोर के खायो चाहत दाना पानी॥१९९॥
- ↑ दहानी=जली।