भ्रमरगीत-सार/१८६-ऊधो ब्रजरिपु बहुरि जिए

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५४ से – १५५ तक

 

राग केदारो
ऊधो! ब्रजरिपु बहुरि जिए।

जे हमरे कारन नँदनंदन हति हति दूरि किए॥
निसि के वेष बकी है आवति अति डर करति सकंप हिए।
तिन पय तें तन प्रान हमारे रबि ही छिनक छिनाय लिए॥

बन बृकरूप, अघासुर सम गृह, कितहू तौ न बितै सकिए।
कोटिक कालीसम कालिंदी, दोषन सलिल न जात पिए॥
अरु ऊँचे उच्छास तृनाव्रत तिहिं सुख सकल उड़ाय दिए।
केसी सकल कर्म केसव बिन, सूर सरन काकी तकिए?॥१८६॥