भ्रमरगीत-सार/१४७-मधुकर! समुझि कहौ मुख बात

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४०

 

मधुकर! समुझि कहौ मुख बात।

हौ मद पिए मत्त, नहिं सूझत, काहे को इतरात?
बीच जो परै[] सत्य सो भाखै, बोलै सत्य स्वरूप।
मुख देखत को न्याव न कीजै, कहा रंक कह भूप॥
कछु कहत कछुऐ मुख निकसत, परनिंदक व्यभिचारी।
ब्रजजुवतिन को जोग सिखावत कीरति आनि पसारी॥
हम जान्यो सो भँवर रसभोगी जोग-जुगुति कहँ पाई?
परम गुरू सिर मूँडि बापुरे करमुख[] छार लगाई॥
यहै अनीति बिधाता कीन्हीं तौऊ समुझत नाहीं।
जो कोउ परहित कूप खनावै परै सो कूपहि माहीं॥
सूर सो वे प्रभु अंतर्यामी कासों कहौं पुकारी?
तब अक्रूर अबै इन ऊधो दुहुँ मिलि छाती जारी॥१४७॥

  1. बीच जो परै=जो बीच में पड़ता है अर्थात् मध्यस्थ या दूत होता है।
  2. करमुख=काले मुँहवाला, करमुँहा, भौंरे के काले मुँह के ऊपर पीला दाग होता है।