फिरि फिरि बार बार सोइ सिखवत हम दुख पावति जातें॥
अनुदिन देति असीस प्रांत उठि, अरु सुख सोवत न्हातें।
तुम निसिदिन उर-अंतर सोचत ब्रजजुबतिन को घातें॥
पुनि पुनि तुम्हैं कहत क्यों आवै, कछु जाने यहि नाते[१]।
सूरदास जो रंगी स्यामरंग फिरि न चढ़त अब राते[२]॥१४४॥