भ्रमरगीत-सार/१४३-मधुकर! मन तो एकै आहि

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३९

 

राग धनाश्री
मधुकर! मन तो एकै आहि।

सो तो लै हार संग सिधारे जोग सिखावत काहि?
रे सठ, कुटिल-बचन, रसलंपट! अबलन तन धौं चाहि[]
अब काहे को देत लोन हौ बिरहअनल तन दाहि॥
परमारथ उपचार करत हौ, बिरहव्यथा नहिं जाहि।
जाको राजदोष कफ ब्यापै दही खवावत ताहि॥
सुंदरस्याम-सलोनी-मूरति पूरि रही हिय माहिं।
सूर ताहि तजि निर्गुन-सिंधुहि कौन सकै अवगाहि?॥१४३॥

  1. चाहि=तू देख।