भ्रमरगीत-सार/१२१-ऊधो! प्रीति न मरन बिचारै

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३३

 

ऊधो! प्रीति न मरन बिचारै।

प्रीति पतंग जरै पावक परि, जरत अंग नहिं टारै॥
प्रीति परेवा उड़त गगन चढ़ि गिरत न आप सम्हारै।
प्रीति मधुप केतकी-कुसुम बसि कंटक आपु प्रहारै॥
प्रीति जानु जैसे पय पानी जानि अपनपो जारै।
प्रीति कुरंग नादरस, लुब्धक तानि तानि सर मारै॥
प्रीति जान जननी सुत-कारन को न अपनपो[] हारै?
सूर स्याम सोँ प्रीति गोपिन की कहु कैसे निरुवारै॥१२१॥

  1. अपनपो=अपनापन, आत्मभाव।