भाव-विलास/प्रथम विलास/१ स्थायी भाव

भाव-विलास
देव, संपादक लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी

वाराणसी: तरुण भारत ग्रंथावली कार्यालय, पृष्ठ ४ से – ७ तक

 

भाव
दोहा

अरथ धर्म तें होइ अरु, काम अरथ तें जानु।
तातें सुख, सुख को सदा, रस शृङ्गार निदानु॥
ताके कारण भाव हैं, तिनको करत विचार।
जिनहिं जानि जान्यो परै, सुखदायक शृंगार॥

शब्दार्थ—ते—से। अरु और, तथा। तातें—इसलिए। निदानु— कारण। ताके—उनके। जिनहिं जानि—जिनको जान लेने पर। जान्यो परै—ज्ञात होता है।

भावार्थ―धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और काम से सुख प्राप्त होता है। सुख का कारण शृङ्गार रस है। शृङ्गार रस के कारण भाव हैं। यहाँ पर उन्ही का वर्णन किया जाता है; क्योंकि उन्हें जान लेने पर शृङ्गार सुखदायक प्रतीत होता है।

दोहा


थिति, विभाव, अनुभाव अरु, कह्यों सात्विक भाव।
संचारी अरु हाव ये, वरण्यो षड्विधि भाव॥

शब्दार्थ―कह्यो—वर्णन किये हैं। षड्विधि—छः तरह के।

भावार्थ―स्थायी, विभाव, अनुभाव, सात्विक, संचारीभाव और हाव-ये भावों के छः भेद कहे गये हैं।

१–स्थायी-भाव-लक्षण
दोहा


जो जा रस की उपज में, पहिले अंकुर होइ।
सो ताको थिति भाव है, कहत सुकवि सब कोइ॥
नवरस के थिति भाव हैं, तिनको बहु बिस्तारु।
तिन में रति थिति भाव तें, उपजत रस शृङ्गारु॥

शब्दार्थ―अंकुर होइ—पैदा होता है, उत्पन्न होता है। थिति भाव—स्थायी भाव। बहु—बहुत। बिरतारु—फैलाव, वर्णन। उपजत—पैदा होता है।

भावार्थ—जिस रस के अनुसार जो भाव सर्व प्रथम हृदय में उत्पन्न होता है उसे कवि लोग उसका स्थायी भाव कहते हैं। नव रसो में नौ ही स्थायी भाव हैं और फिर उनके भी अनेक भेद हैं। इनमे जो रति स्थायी भाव है; उससे शृङ्गार रस की उत्पत्ति हुई है।

रति-लक्षण
दोहा

नेक जु प्रियजन देखि सुनि, आन भाव चित होइ।
अति कोविद पति कविन के, सुमति कहत रति सोइ॥

शब्दार्थ—नेक—थोड़ा भी। आन भाव—अन्य प्रकार का भाव। अतिकोविद—दिग्गज पंडित। पति कविन के—कवियों के सिरताज। सुमति—विद्वान। सोइ—उसे।

भावार्थ—अपने प्रियजन को देखकर अथवा उसके विषय में सुनकर जो एक तरह का भाव (अर्थात् गुदगुदी या उमंग) हृदय में उत्पन्न होता है, उसे कवि, पंडित तथा बुद्धिमान लोग रति कहते हैं।

उदाहरण पहला—(प्रियदर्शन से)
कवित्त

संग ना सहेली केली करति अकेली,
एक कोमल नवेली वर बेली जैसी हेम की।
लालच भरे से लखि लाल चलि आये सोचि,
लोचन लचाय रही रासि कुल नेम की॥

'देव' मुरझाय उरमाल उरझाय कह्यो,
दीजो सुरझाय बात पूछी छल छेम की।
भायक सुभाय भोरें स्याम के समीप आय,
गांठि छुटकाइ गांठि पारि गई प्रेम की॥

शब्दार्थ—सहेली—सखियाँ। केली—क्रीड़ा। बरबेली जैसी हेमकी—सोने की श्रेष्ठलता के समान। लखि—देखकर। लोचन—आँखें। लचाव—झुकाकर। रासि—समूह। गरमाल—गले की माला। दीजो सुरझाय—सुलझा दो। छुटकाइ—खोलकर। गांठि छुटकाइ—गांठि को छुड़ाकर। गांठि प्रेम की—प्रेम की गाँठि बांध गयी।

उदाहरण दूसरा—(प्रिय श्रवण से)
सवैया


गौने के चार चली दुलही, गुरु लोगन भूषन भेष बनाये।
सील सयान सखीन सिखायो, सबै सुख सासुरेहू के सुनाये॥
बोलिये बोल सदा हँसि कोमल, जे मन-भावन के मन भाये।
यों सुनि ओछे उरोजनि पै, अनुराग के अंकुर से उठि आये॥

शब्दार्थ—गौने—द्विरागमन। सील—शील, सम्मान करने का स्वभाव, लज्जा। सखीन—सखियों ने। सिखायो—सिखा दिया। सासुरे—ससुराल। मनभावन—पति। बोलिये—बोलना। मनभाये—मन को अच्छे लगनेवाले। ओछे—छोटे। उरोजनि—कुचद्वय। अनुराग—प्रेम।