भाव-विलास/प्रथम विलास/ग्रन्थ-परिचय
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ग्रन्थ-परिचय
छप्पय
श्री वृन्दावन-चन्द चरणजुग, चरचि चित्त धरि।
दलमलि कलिमल सकल, कलुष दुख दोष मोष करि॥
गौरी-सुत गौरीस गौरि, गुरु-जन-गुण गाये।
भुवन-मात भारती सुमिरि, भरतादिक ध्याये॥
कवि देवदत्त शृङ्गार रस, सकल-भाव-संयुक्त सँच्यो।
सब नायकादि-नायक सहित, अलंकार-वर्णन रच्यो॥
शब्दार्थ—श्रीवृन्दावन-चन्द—श्रीकृष्ण। चरचि—पूजाकरके। दलमलि—नष्ट करके। कलिमल—कलियुग के दोष। कलुष—पाप। मोष करिनाश करके। गौरीसुत—श्रीगणेश। गौरीस—महादेव। गौरि—पार्वती। भुवनमात—संसार की माता, जगज्जननी। भारती—सरस्वती। भरतादिक—भरत आदि आचार्य। संयुत—सहित। सँच्यों—संचित किया। रच्यो—बनाया।